सोमवार, 31 अगस्त 2015

क्या खोया क्या पाया........ ( चिंतन )

    1. आजादी से अब तक हमने
      खुद को कहाँ पहुंचाया
      करो विचार तनिक इतना
      क्या खोया क्या पाया !!

      विकास की होड़ में बढ़ते गए
      खुद की पहचान बढ़ाया !
      या खो गए पाश्चात्य के धुन में
      अपने ही मूल्यों को गंवाया !!

      बहुत पायी उच्च शिक्षा हमने
      अंग्रेजी को अपनाया !
      पर भूल गए शायद अपनी भाषा
      हिंदी का अस्तित्व घटाया !!

      खूब सीखा हमने रहना सूट बूट में
      विदेशी पोशाकों को अपनाया !
      भूल गए क्यों अपनी माटी की खुसबू
      परदेश में रहना सबको भाया !!

      घने हुए आविष्कार दुनिया में यंहा
      हमने भी जलवा दिखलाया !
      पर सोचो कितने दूर हुए अपनों से हम
      छोड़ परिवार एकल अपनाया !!

      आपा धापी की इस दुनिया में
      संस्कारो को भुलाया !
      नव पीढ़ी को हम के देकर चले
      कभी इसका ख्याल आया !!

      आजादी से अब तक हमने
      खुद को कहाँ पहुंचाया !
      करो विचार तनिक इतना
      क्या खोया क्या पाया !!
      !
      !
      !
      मूल रचना ……( डी. के. निवातियाँ )

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रविवार, 30 अगस्त 2015

kabhi idhar..kabhi udhar ..!!

Kabhi idhar kabhi udhar,
Ye mann mera kyu jaata h,
Ek hi jagah par tikey rehna,
Isko kyu ni aata h …

Kehta hun mae isko,
Ki saant rho tm hardum,
Par fudak fudak kr ye kyu,
Poori duniya ghum aata h…

Kabhi idhar kabhi udhar,
Ye mann mera kyu jaata h…..

Kehta hun mae isko,
Ki chup rha kro tm ekdam,
Par bak bak krke sabkuch,
Ye sab sach bol kyu jaata h …..

Kabhi idhar kabhi udhar,
Ye mann mera kyu jaata h…

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कान्हा से प्रेम

कान्हा को कोजते मेरे नैन,
बिन देखे उसे नही होता चैन।

रैना बीती जाये खाये और सोये,
कान्हा की मस्ती बस है खोये।

रासलीला है कान्हा ने रचाई,
मस्त होना भूल गया हू,
बस नन्यानवे का फेर हो गया हू भाई।

कान्हा तो सुना रहा है बान्सुरी दिन और रात,
कब जाने इस भेजे मे आयेगी यह बात।

बान्सुरी पुकारती तो है,दिल को बहलाती तो है,मोहक लगती तो है,
परन्तु ना जाने कौन सी लहर आकर सब झन्झो्रर्ती तो है।

कान्हा को मेरा सखी सन्देश दे आना,
राह मे हम भी है बस पुकार कर आना,
भक्ती मे क्या रह गयी कमी दूर उन्हे है करनी,
हमे तो अभी तक नही आ रही अपनी गागर भरनी।

सन्देश कान्हा को है इतना पहुन्चाना,
बस करो अपने भक्तो को और तरसाना।

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डसति हे ये कलि रात्...

डसति हे ये कलि रात मुझे
आज फिर तेति काहानि हे याद आइ
तु तो नहि हे पास मेरे
साथ हे तो बस ये तन्हाइ
डसति हे ये कलि रात मुझे…..

नएनो से बेह्गइ सारि खुसि पानि कि जेसे
और बना गयि उस कि झिल और झिल कि एक नदि जेसे
तेहेरति हु आज भि उसमे एक कस्ति कि तरहा,,किनारे कि आस मे, भटकति हु यहाँ वहाँ बस मनजिल कि आश मे,,,

डसति हे ये कालि रात मुझे……………..

कमि नाथि उस पल मे, कमि हे तो आज के ये दिन मे
जो लगे अधुरि,,,
कोरे कागज के तुकडो कि तरहा रेहगइ बिखरि
डसति हे ये कालि रात मुझे………
मोउसम कि तरहा बद्ल गइ जिन्देगि का रुख एकहि पल मे,,,,
तोड डालि तुने जो सारि रस्मे…..
सिक्वा नहि इस जिन्देगि से, कि उसने कि बेब्फआइ,,
किसमत मे हि जो थ। नहि, उस से केसि रुसव​।इ…
डसति हे ये कलि र।त मुझे..

अब फिरसे उमिद कि एक किरन जगि हे सिने मे,
ख्व।इस तो नहि बस कोसिस हे जिने मे..
डसति हे ये कलि र।त मुझे….

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।।ग़ज़ल।।कोशिसेे बेकार निकली।।

।।ग़ज़ल।।कोशिस बेकार निकली।।

तुम्हे चाहने की मेरी हर कोशिस बेकार निकली ।।
तेरी बेचैनी भी तेरे दिल की वफादार निकली ।।

थकती तो नही है ये नज़र तेरा चेहरा निहारकर ।।
पर तेरी ख़ामोशी पर मेरी हर नज़र बेजार निकली ।।

इंतजार तेरे इशारों का करता ही रह गया मैं ।।
न जाने किस वज़ह से तू गुमसुदा हर बार निकली ।।

माना कि बेअसर रह गयी हो मेरी चाहते ऐ दोस्त ।।
पर तेरी लापरवाही तो काफ़ी असरदार निकली ।।

काश! कि तुम सुरुआत ही न करने दिये होते मुझे ।।
सम्हल जाता पर तू बेवफा ही आखिरकार निकली ।।

…….R.K.M

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शनिवार, 29 अगस्त 2015

मेरा प्यारा भाई

,मेरे भईया,मेरे चन्दा,मेरे अन्मोल रतन,
यह बन्धन ना कभी खत्म हो चाहे कोई कर ले जितने यतन।

बचपन के दिन भुलाते नही भुलते,
मस्ती करते, शरारते करते, खेलते खिलाते,
याद है ना होली पर गुब्बारे फुलाते,
गुजराती मोहोल्ले की बरसाती पर रक्शाबन्धन पर पतन्गे और कबूतर फसाते।

तेजा की पापरी भल्ला आती है याद,
आज भी मुह मे पानी आ जाता है बारम्बार।

हर पल हमने बिताया उमन्गो भरा,
दुआ करती हू खुदा से साथ ऐसा ही बना रहे अपना हरा भरा।

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।।कविता।।क्योंकि आज है रक्षाबन्धन।।

।।कविता।।क्योकि आज है रक्षाबन्धन।।

भैया यह रेशम का धागा एक मात्र है साधन ।।
जबकि सही रूप में है यह ,स्नेहो का बन्धन ।।
रुको मैं आती
थाल सजाती
करना है अभिनन्दन ।।
क्योकि आज है रक्षाबन्धन ।।

आज कलाई पर जो तेरे, बाँध रही मैं धाँगा ।।
सिर्फ तुम्हारे लिये दुआ की ,और नही कुछ माँगा ।।
खुश तुम रहना
कहती बहना
लगा के कुंकुम चन्दन ।।
क्योकि आज है रक्षाबन्धन ।।

वो बचपन का झूठ बोलना माँ से वो डटवाना ।।
चल भैया तू आज छोड़ दे करना ,कोई बहाना ।।
मैं तेरे घर
एक धरोहर
अब कभी न करना अनबन ।।
क्योकि आज है रक्षाबन्धन ।।

कर्तब्यो से विमुख न होना वादा कर मुझसे तू आज ।।
आश्वासन मुझको तू दे दे रखेगा राखी की लाज़ ।।
अपना यह कर
सिर पर रखकर
पर तनिक न हो स्पंदन ।।
क्योकि आज है रक्षाबन्धन ।।

भैया यह पावन रिश्ता है बिल्कुल ही अनमोल ।।
तू भाई उन हिंदुस्तानी बहनो का कुछ बोल ।।
जिसने बाँधा
तुमको धाँगा
करना ही होगा अभिनन्दन ।।
क्योकि आज है रक्षाबन्धन ।।

न कोई बहना रहे अकेली न रहे कलाई सूनी ।।
हे ईश्वर ! इस रक्षासूत्र से टल जाये अनहोनी ।।
पूरे विश्व में
गूँजेगा अब
भातृ-प्रेम का गुंजन ।।
क्योकि आज है रक्षाबन्धन ।।

………R.K.M

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मित्र कवि युद्ध शिल्पी न बनो

कविता में तोप चलाओ,
पर बेरोजगारी के खिलाफ,
तलवारें भांजो पर भुखमरी के खिलाफ,
डंडे बरसाओ पर स्त्री की अस्मत के खातिर ,
भाई कवि मित्र,
पर अपनी कविता में,
युद्ध के लिए देशों को न उकसाओ ,
इसकी कीमत बहुत भारी होती है,
विधवाओं की सूनी मांग ,
समाज के लिए रात कारी होती है,
शब्द शिल्पी हो तुम,
युद्ध शिल्पी न बनो,
कविता को बनाओ,
नये सपनों,
नये समाज को गढ़ने का आधार,
जिसमें हो समानता, बराबरी और भाईचारा,
रहे यही प्रयास तुम्हारा,
बन न पाये कविता कभी,
किसी युद्ध का हथियार,
किसी सिरफिरे की वहशी सोच का औजार,
28/8/2015

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शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

(संयोग अंश चार )

    1. (संयोग अंश चार )

      {{ लेखनी }}

      अजब तेरी कहानी, गजब तेरे खेल
      लेखनी तेरे देखे, हमने रूप अनेक

      उस वक़्त कितनी हसीन
      तुमने पाया था रूप भगवान !
      लिख सबकी जीवन गाथा
      बनी थी साक्षी जीवन का प्रमाण !!

      एक रूप में जब देखा मैंने,
      आई थी मेरे हाथो प्रथम बार !
      सीखा था तुमसे लिखना
      बनी थी तुम मेरे जीवन का आधार !!

      वो भी रूप अनोखा होता,
      जब होती हो तुम गुरु के हाथ !
      दुनिया में दिला देती
      किसी को भी अपनी विशेष पहचान !!

      एक मंजर मैंने तेरा वो भी देखा
      बन जाती है किसी के दुष्कर्म से घृणा की पात्र !
      न्यायधीश के हाथो में आकर,
      “संयोगवश” धारण करे, करने को न्यायोचित उद्धार !!
      *
      *
      *
      [ ……..डी. के. निवातियाँ……… ]

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संयोग ....... (अंश पाँच )

    1. संयोग (अंश पाँच )

      {{चन्दन की लकड़ी }}

      चन्दन के पेड़ से कटी
      कुछ लकडिया बाजार चली
      किस शाख के भाग्य क्या लिखा,
      किस भाग के किस्मत क्या ठनी !

      जंगल से निकल सुगंध बिखेरती
      दूकानदार की रोज़ी का सबब बनी
      सजी थी दूकान में अपनी भाग्य का
      बाट जोहती अंके टुकड़ो में थी बटी !!

      सहसा आई घडी बिछडन की
      कुछ खरीद ले गया पुजारी
      जाकर मंदिर में थी वो घिसी
      चढ़ी शिवलिंग फिर माथे पर बन तिलक सजी !

      कुछ को ले गया लकड़हारा
      जाकर वो मशीनो में थी कटी
      नक्काशो ने फिर उसे तराशा
      तब जाकर माला में थी गुथी !

      आये भक्त कुछ राम, कृष्ण के
      कुछ पीर पैगम्बर के साथ चली
      ले गए चंदन के मणको की माला
      प्रभु स्मरण के नाम पर थी मिटी !!

      कुछ लोगो का दल दूकान पर था आया
      अश्रु बहते नयनो में शौक था छाया हुआ
      लेकर अपने संग बाकी चन्दन के टुकड़े
      शव का अंतिम संस्कार करने चला !!

      देखो “संयोग” इन टुकड़ो का नियति कैसी लिखी
      कल थी हिस्सा आज वो “शव दाह” के लिए चली
      चढ़ा दी गयी घी सामग्री के संग चिता की वेदी पर
      मिट गयी आज वो आग में धूं धूं कर जल उठी !!

      किस तरह बिता जीवन अब तुम हाल सुनो
      एक ही अंश पर क्या क्या बीती बात सुनो
      अलग-2 टुकड़ो की किस्मत भिन्न कैसे बनी
      कोई माथे सजे………….!!
      कोई हाथोे सजे ………..!!,
      कोई आग में थी जली ……………………..!!
      कोई आग में थी जली ……………………..!!
      कोई आग में थी जली ……………………..!!
      *
      *
      *
      रचनाकार ::–>>> [[ डी. के. निवातियाँ ]]

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राखी त्यौहार और हम

राखी त्यौहार और हम

राखी का त्यौहार आ ही गया ,इस त्यौहार को मनाने के लिए या कहिये की मुनाफा कमाने के लिए समाज के सभी बर्गों ने कमर कस ली है। हिन्दुस्थान में राखी की परम्परा काफी पुरानी है . बदले दौर में जब सभी मूल्यों का हास हो रहा हो तो भला राखी का त्यौहार इससे अछुता कैसे रह सकता है। मुझे अभी भी याद है जब मैं छोटा था और राखी के दिन ना जाने कहाँ से साल भर ना दिखने बाली तथाकथित मुहबोली बहनें अबतरित हो जातीं थी एक मिठाई का पीस और राखी देकर मेरे माँ बाबु से जबरदस्ती मनमाने रुपये बसूल कर ले जाती थीं। खैर जैसे जैसे समझ बड़ी बाकि लोगों से राखी बंधबाना बंद कर दी। जब तक घर पर रहा राखी बहनों से बंधबाता रहा ,पैसों का इंतजाम पापा करते थे मिठाई बहनें लाती थीं।अब दूर रहकर राखी बहनें पोस्ट से भेज देती हैं कभी कभी मिठाई के लिए कुछ रुपये भी साथ रख देती हैं।यदि अबकाश होता है तो ज़रा अच्छे से मना लेते है। पोस्ट ऑफिस जाकर पैसों को भेजने की ब्यबस्था करके ही अपने कर्तब्यों की इतिश्री कर लेते हैं। राखी को छोड़कर पूरे साल मुझे याद भी रहता है की मेरी बहनें कैसी है या उनको भी मेरी कुछ खबर रखने की इच्छा रहती है ,कहना बहुत मुश्किल है . ये हालत कैसे बने या इसका जिम्मेदार कौन है काफी मगज मारी करने पर भी कोई एक राय बनती नहीं दीखती . कभी लगता है ये समय का असर है कभी लगता है सभी अपने अपने दायरों में कैद होकर रह गए हैं। पैसे की कमी , इच्छाशक्ति में कमी , आरामतलबी की आदत और प्रतिदिन के सँघर्ष ने रिश्तों को खोखला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
अपना अपना राग लिए सब अपने अपने घेरे में
हर इंसान की एक कहानी सबकी ऐसे गुजर गयी

उलझन आज दिल में है कैसी आज मुश्किल है
समय बदला, जगह बदली क्यों रिश्तें आज बदले हैं

पर्व और त्यौहारों के देश कहे जाने वाले अपने देश में कई ऐसे त्यौहार हैं लेकिन इन सभी में राखी एक ऐसा पर्व है जो भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को और अधिक मजबूत और सौहार्दपूर्ण बनाए रखने का एक बेहतरीन जरिया सिद्ध हुआ है। राखी को बहनें अपने भाई की कलाई पर राखी बांधते हुए उसकी लंबे और खुशहाल जीवन की प्रार्थना करती हैं वहीं भाई ताउम्र अपनी बहन की रक्षा करने और हर दुख में उसकी सहायता करने का वचन देते हैं।

अब जब पारिवारिक रिश्तों का स्वरूप भी अब बदलता जा रहा है भाई-बहन को ही ले लीजिए, दोनों में झगड़ा ही अधिक होता है और वे एक-दूसरे की तकलीफों को समझते कम हैं ।आज वे अपनी भावनाओं का प्रदर्शन करते ज्यादा मिलते है लेकिन जब भाई को अपनी बहन की या बहन को अपनी भाई की जरूरत होती है तो वह मौजूद रहें ऐसी सम्भाबना कम होती जा रही है.

सामाजिक व्यवस्था और पारिवारिक जरूरतों के कारण आज बहुत से भाई अपनी बहन के साथ ज्यादा समय नहीं बिता पाते ऐसे में रक्षाबंधन का दिन उन्हें फिर से एक बाद निकट लाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। लेकिन बढ़तीं महंगाई , रिश्तों के खोखलेपन और समय की कमी की बजह से बहुत कम भाई ही अपनी बहन के पास राखी बँधबाने जा पाते हों . सभी रिश्तों की तरह भाई बहन का रिश्ता भी पहले जैसा नहीं रहा लेकिन राखी का पर्ब हम सबको सोचने के लिए मजबूर तो करता ही है कि सिर्फ उपहार और पैसों से किसी भी रिश्तें में जान नहीं डाली जा सकती। राखी के परब के माध्यम से भाई बहनों को एक दुसरे की जरूरतों को समझना होगा और एक दुसरे की दशा को समझते हुए उनकी भाबनाओं की क़द्र करके राखी की महत्ता को पहचानना होगा। अंत में मैं अपनी बात इन शब्दों से ख़त्म करना चाहूगां .

मनाएं हम तरीकें से तो रोशन ये चमन होगा
सारी दुनियां से प्यारा और न्यारा ये बतन होगा
धरा अपनी ,गगन अपना, जो बासी बो भी अपने हैं
हकीकत में बे बदलेंगें ,दिलों में जो भी सपने हैं

मदन मोहन सक्सेना
मौलिक व अप्रकाशित”

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भाई-बहन का प्यर अनूप

बच्पन के दिन और रात,
हुम दोनो ने व्यतीत किये है साथ-साथ।

खेल्ते कूदते नाचते गाते, करते तमाशे,
ना जाने कब हो गये ह्म जवान हन्सते-हन्साते।

मनजिले दोनो की हो गयी है दूर,
परन्तु प्यर भाई बहन का है और रहेगा भरपूर।

यह बनधन अपने आप मे है इतना महफूस,
कि दूरिया भी ना मिता पायेगी भाई बहन का प्यार अनूप।

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गीत- नारी-शकुंतला तरार

‘नारी’
नारी है तू तेरे हाथों देश का उत्थान है
धर्म से और कर्म से करती तू कल्याण है
नारी है तू —-
तेरे सीने में चलती
है प्रलय की आंधियां
धमनियों में भी बहती
है मुक्ति की बिजलियाँ
विद्रोह की ज्वाला है अंतर, इक नया तूफ़ान है
धर्म से और कर्म से करती तू कल्याण है
नारी है तू —-
तुझमें साहस है मिटादे
दुष्टों के साम्राज्य को
तुझमें साहस है बचाले
वज्र बनकर आज को
तू है जननी तेरे हाथों देश का निर्माण है
धर्म से और कर्म से करती तू कल्याण है
नारी है तू —-
तू मिटादे असभ्यता की
सड़ी-गली इन रूढ़ियों को
काट दे ज़ुल्मो सितम और
दासता की बेड़ियों को
सभ्यता की नींव रखदे , प्रगति का सोपान है
धर्म से और कर्म से करती तू कल्याण है
नारी है तू —-
जज्बातों भावनाओं से
विपदाओं से न हारना
भय के सागर में उतर
कठिनाई से ना भागना
दिव्य ज्योति से तेज पुंज से मुक्ति का संधान है
धर्म से और कर्म से करती तू कल्याण है
नारी है तू —-
शकुंतला तरार

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गुरुवार, 27 अगस्त 2015

dreams

हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के

हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
आँधी ने ये ख़्वाब भी रख डाला तोड़ के

आग़ाज़ क्यों किया था सफ़र उन ख़्वाबों का
पूछ े हो सब्ज़ ज़मीनों को छोड़ के

इक बूँद ज़हर के लिए फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के

कुछ भी नहीं जो ख़्वाब की तरह दिखाई दे
कोई नहीं जो हम को जगाए झिंझोड़ के

इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के

जाने क्या देखा था मैंने ख़्वाब में

जाने क्या देखा था मैंने ख़्वाब में
फँस गया फिर जिस्म के गिरदाब में

तेरा क्या तू तो बरस के खुल गया
मेरा सब कुछ बह गया सैलाब में

मेरी आँखों का भी हिस्सा है बहुत
तेरे इस चेहरे की आब-ओ-ताब में

तुझमें और मुझमें तअल्लुक़ है वही
है जो रिश्ता साज़ और मिज़राब में

मेरा वादा है कि सारी ज़िंदगी
तुझसे मैं मिलता रहूँगा ख़्वाब में

ज़िंदगी जैसी तवक्को थी नहीं, कुछ कम है

ज़िंदगी जैसी तवक्को थी नहीं, कुछ कम है
हर घडी होता है एहसास कहीं कुछ कम है

घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक्शे के मुताबिक़ यह ज़मीन कुछ कम है

बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है, यकीन कुछ कम है

अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ ज़्यादा है, कहीं कुछ कम है

आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
यह अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है

Courtesy :अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान

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।।ग़ज़ल।।मुझे मालुम है।।

।।ग़ज़ल।।मुझे मालुम है।।

मेरे ख्वाबो में तेरा चेहरा नजर आयेगा मुझे मालुम है ।।
आज फिर से वही दर्द उभर आयेगा मुझे मालुम है ।।

मेरी तकलीफ का एहसास हो न हो तुम्हे ऐ मेरे दोस्त।।
मेरी मुहब्बत का एहसास तुम्हे होगा मुझे मालुम है ।।

मेरे बहते अश्क पर मुझको भरोसा हो गया अब ।।
उभरेंगे तेरे आँख में भी आंसू मुझे मालुम है ।।

अब मुफ़्त में तो यहा नशीहते भी नही मिलती है ।।
मैंने तो अपनी जिंदगी ही लुटा दी मुझे मालुम है ।।

इल्म कर तेरी आजमाइस पर कुर्बान कर दी जिंदगी ये।।
यकीनन मेरी ख़ामोशी का असर होगा मुझे मालुम है ।।

ऐ दोस्त तू मिले ,न मिले ,फिर भी कोई बात नही ।।
पर अब मैं तेरा ही होकर जिऊँगा मुझे मालुम है ।।

……..R.K.M

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पत्थर तराशते रहे ..........!!

    1. हम दिखावे के उजालो में,
      तन्हाई के लिए अँधेरे तलाशते रहे !
      ख्वाबो में देखी तस्वीर को,
      हकीकत में ढालने के लिए पत्थर तराशते रहे !!

      ज़माना लूटता रहा,
      खुशियो से आबरू – ऐ – इंसानियत !
      अपनी शान बचाने में,
      हम शर्म की चादर से खुद को ढापते रहे !!

      बेईमानी की शरद रातो में,
      वो दौलत की आग से हुए पसीना पसीना !
      अपना हाल कुछ यूँ था,
      ईमानदारी कीलौ में भी थर्र थर्र कापते रहे !!

      लालच की लालसा में
      ज़माना बेदर्द है कितना मालूम जब हुआ !
      देखा रिश्तो का क़त्ल होते,
      लोग अपनों को ही गाजर मूली सा काटते रहे !!

      क्या करोगे जानकार “धर्म”
      जमाने का दस्तूर बड़ा निराला होता हैं !
      जिन्हे हक़ दिया अपना,
      वो ही नश्तर चुभाकर, मरहम लगाते रहे !!

      हम दिखावे के उजालो में,
      तन्हाई के लिए अँधेरे तलाशते रहे !
      ख्वाबो में देखी तस्वीर को,
      हकीकत में ढालने के लिए पत्थर तराशते रहे !!
      !
      !
      !
      डी. के. निवातियाँ __!!!

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तुम से मिलता हूं गोया जहां पूरा समा जाता हो

पहाड़ से मिलता हूं
मिलता हूं
जंगल से भी।
जब भी गले लगाया
किसी मोटे बिरिछ को तो लगा
तुम्हीं में समा गया गोया।
काले थे या गोरे
रंग उनके
कहां मायने रखता अब
बस गले लगा लो
तो लगता है अपने ही तो हैं।
वैश्विक दुनिया में
लगाने को गले मचलता है मन
उन वर्ण को भी जो हमारे यहां क्रीम से साफ करना चाहते हैं
धो देना चाहती हैं पैदाइशी रंग
क्या सांवला और क्या गौर
जब भी मिला करता हूं किसी गैर से
वो अपना सा ही लगता है।
अब क्या बात करें उनकी
जो कहा करते थे
हमीं तो हैं दुनिया तुम्हारी
हमीं से तो रिश्ते अर्थवान हुआ करते हैं
वे शब्द अब खाली खोखले से लगते हैं
लगते हैं वे चुनावी घोषणाओं से
ग़र कैसे हो सकता था
दर्द में तड़पे कोई
आप टपका दें
एक मैसेज
गेट वेल…
और इधर मेरा बुखार उतर जाए।
इन दिनों लगने लगे हैं वहीं लोग प्यारे
जो अपने न थे
ना ही जिनकी पहचान थी
लेकिन क्या हुआ बता सकते हैं?
क्योंकर कोई ग़ैर अपनी ओर खींचने लगा
बरबस उसकी आंखों से टपकते लोर अपनी ओर खींचते हैं।

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!! जीवन गाथा !!

    1. जी गया जिंदगी उमभर
      मगर जीना नही आया,,!
      पी गया जहर, अमृत जानकर,
      मगर पीने का ढंग नहीं आया..!!

      जिंदगी का ये सफर
      कुछ इस तरह से बिताया !
      पाकर अपनों का प्यार
      अपना बचपन था खिलखिलाया !!

      कब बीत गया बचपन
      अपनत्व की ममता के बीच भुलाया !
      घर से निकला बहार,
      तालीम की दुनिया में कदम बढ़ाया !!

      भूला मुस्कुराने की अदा,
      मुखड़े में अब एक कसाव आया !

      हुआ दीदार नए चेहरों का
      जिंदगी में अनुभव का मौका आया !!
      कुछ को हुई घृणा मुझसे,
      कुछ ने दोस्त बनकर मुझे अपनाया !!

      पल-पल बढ़ते-बढ़ते यूँ ही,
      आसमा छूने का ख्याल मन में आया !
      तन भी खोया, मन भी खोया,
      अब तो रातो को भी सोना न भाया !!

      जूझ रहा था कश्मकश में जब
      आयु किशोर से जवानी में कदम बढ़ाया !
      देखे थे जो सपने,
      अब उनको सच करने का वक़्त आया !!

      इधर भो दौड़ा, उधर भी दौड़ा,
      हर एक दिशा में अपना कदम बढ़ाया !
      करना चाहा जो इस मन ने
      हर और अड़चनों से घिरा हुआ पाया !!

      जरुरत थी जब हमदर्दी की,
      देकर उलटे सीधा ज्ञान भरमाया !
      गैरो की बात क्या कीजे,
      अपनों ने भी जी भर के हमे सताया !!

      बेमानी थी ये दुनिया,
      इस महफ़िल में कुछ न कर पाया !
      देख हालत दुनिया की,
      अब हमको खुद पे ही रोना आया !!

      साहस बटोरकर जैसे ही,
      हमने फिर से अपना अगला कदम बढ़ाया !
      अनगिनत बंधनो की
      जंजीरो के घेरे से स्वंय को जकड़ा पाया !!

      भूल गया सब याद पुरानी,
      इस जीवन में कुछ न कर पाया !
      जिनकी खातिर खुद को भूला
      सबसे पहले उन्होंने ही मुर्ख बताया !!

      ऐसा उलझ जिंदगी से,
      आज तक उसकी पहेली न सुलझ पाया !
      कौन था, मै कौन हूँ,
      ढूंढ रहा हूँ खुद को जिंदगी में न जान पाया !!

      जी गया जिंदगी उमभर
      मगर जीना नही आया,,!
      पी गया जहर, अमृत जानकर,
      मगर पीने का ढंग नहीं आया..!!

      डी. के. निवातियाँ _________@@@

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बुधवार, 26 अगस्त 2015

चन्चल मन

कच्हु मोर नही कच्हु तोर नही,
फिर काहे मनवा चोर भया…
सतरन्ग सजी बहुरन्ग बनी,
क्यु अपना अन्ग च्हिपाय गया…
कभी इधर गया कभी उधर गया,
शायद अपना पथ भूलि गया…
इक ढूड्त ढूड्त प्रेम गली,
कच्हु मिला नही खुद खोय गया….

(सन्जू)

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मनवा उड़ता जाए........

    1. हसरतो के पंख लगाकर
      मनवा उड़ता जाए !
      किस राह चले वो बेखबर
      निडर उड़ता जाए !!

      अनजानी, अनदेखी सूरत पर
      क्यों मरता जाए !
      मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा घूमे
      रब को ढूंढ़ता जाए !!

      उगते सूरज की किरण लिए
      सपने बुनता जाए !
      गर्दिशों के मंडराते बादलो में,
      बेख़ौफ़ उड़ता जाए !!

      विजय पताका लहराने निकला
      हाथो के पंख फैलाये !
      आसमाँ को कदमो में झुकाने,
      तुफानो से लड़ता जाए !!

      चला लिए नई उम्मीद, नई राह,
      नए पथ पे बढ़ता जाए !
      शर्त लगा कर मदमस्त पवन से
      सपनो में रंग भरता जाए !!

      हौसले हो जिसके बुलंद उसे डर कैसा
      मुसीबतो से लड़ता जाए !
      इरादे अडिग जिसके पर्वत जैसे अटल
      भाग्य भी झुकता जाए !!

      हसरतो के पंख लगाकर
      मनवा उड़ता जाए !
      किस राह चले वो बेखबर
      निडर उड़ता जाए !!
      !
      !
      !
      डी. के. निवातियाँ______@@@

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जन्माष्टमी

माखन चोर नन्द किशोर, जन्मे मथुरा धाम l
पाप से मुक्ति दिलाएंगे ,मेरे प्यारे घनश्याम ll
अजर अमर हूँ इसका कंस को, था बड़ा अभिमान l
कंस का अंत करने जन्मे, प्यारे कृष्ण भगवान ll

बहिन देवकी-वसुदेव को भय से, कंस ने बंदी बनाया l
देवकी गर्भ से जन्मे शिशु का ,कंस ने वध करवाया ll
देवकी पुत्र रूप में कान्हा जब धरती पर आये l
वसुदेव ने गोकुल ले जाके ,कान्हा के प्राण बचाये ll

मथुरा जन्म लिया कान्हा ने ,पले-बड़े गोकुल धाम l
पाप से मुक्ति दिलाएंगे ,मेरे प्यारे घनश्याम ll

यशोदा का लाड़ला कान्हा , माखन चोर कहलाये l
बंसी की मधुर धुन पे गोपियाँ, अपना नाच दिखाये ll
गोकुल की रक्षा खातिर , ऊँगली पर गोवर्धन उठाया l
शेष नाग के फन पर चढ़कर ,कान्हा ने नाच दिखाया ll

कंस का वध कर कान्हा ने ,मथुरा को मुक्त कराया l
माँ-बाप को गले लगाके, बेटे का फर्ज निभाया ll
कान्हा के इस रूप को हम मुरलीवाला भी बुलाते l
जन्माष्टमी के रूप में ,हम ये पर्व मानते ll

जय श्री कृष्णा ! जय श्री कृष्णा ! जय श्री कृष्णा !

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मंगलवार, 25 अगस्त 2015

अन्मोल रतन भाई मेरा

भाई है मेरा अन्मोल रतन,
कोइ ना उसके जैसा बन सकता चाहे कर ले लाखो यतन।

बाखूबी निभाता है सबकी जिम्मेदारी,
कन्धो पर लिये सबके भार तह उम् सारी।

रक्शाबन्धन का रह्ता है उसे अह्सास,
हर पल सजा रह्ता है बेहनो का दरबार,
दिन रात करता फिक्र बहिन की सान्स- सान्स।

तकलीफ ना आने देता अपनी बहिन को कभी,
कहते है सच लहू को लहू पुकारता है तभी।

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रक्षाबंधन (हाइकू )

रक्षाबंधन
परिभाषा प्रेम की
भाई बहन

नहीं सितम
बहनो पर अब
तैयार हम

रेशमी डोर
या फिर कच्चा धागा
न कमजोर

करो सम्मान
सबकी बहनो का
ये बात मान

लो ये शपथ
मिटायेंगे बुराई
रोक कुपथ

पूज्य है नारी
और है शक्तिशाली
नहीं बेचारी

हितेश कुमार शर्मा

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सोमवार, 24 अगस्त 2015

बस्तर गीत-कविता- शकुंतला तरार-बेलोसा

बस्तर गीत-कविता

‘बेलोसा’
बेलोसा
दिन निकलने के साथ ही
जाती है रयमति के घर
हाथ में उसके
एक टुकनी है
बगल में एक साल डेढ़ साल का बच्चा
बागा पाई है वो
रयमति भी वैसी ही टुकनी लेकर
निकलती है अपने घर से
अरे यही तो उनकी पूंजियों में से एक है
बाड़ी किनारे खड़े होकर
दोनों में थोड़ी देर कुछ बातचीत होती है
फिर चल देती हैं
वे दोनों
गाँव से बाहर
जाते- जाते -जाते चली जाती हैं
एक डोबरी के किनारे
फिर उस डोबरी के दलदल में उतरकर
करती हैं प्रयास
केसूर कांदा के लिए
कल
साप्ताहिक इतवार का बाजार है
कोंडागांव का
कुछ मिलेगा
तो नमक और कुछ जरुरी सामान भी लेना है
साथ में
बच्चे के लिए एक कमीज
ओह
दिन भर कीचड़-पानी में
क्या परिश्रम है
और हम शहर के लोग
उनसे मोल भाव करते हैं
चंद रुपयों के लिए —-शकुंतला तरार

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Wo ek prinda
Jo aag lagata chala gya
Apni dard kahani se
Khud m dubata chala gaya
Na jane kb hum
Uski yaado m khone lage
Pr wo sagar tha aisa
Jo pyas badhata chala gya
Dil ki gahriyo m
Jajbato to chipata chala gya
Sath tha bs tho palo ka
Phir b dil m samata chala gaya
Na jane phir kya bat thi Usme wo sanso se dhadkan churata chala
gya
Aawara badal tha wo
Ehsas se apne bhigata chala gaya
Wo sagar ko bhar k
Aankho ko sukhata chala gaya
Phoolo se khusbu ko
Churata chala gaya
Aane ki khabar na di
Jane ka kissa sunta chala gaya
Use jindgi ki kitab kya di
Wo to use b jalata chala gya
Wo rahi tha sadiyo ka
Mujhko b chalna sikhata chala gaya
Bhichadne ka dard to tha
Manjil ki chah ko bhadata chala gya
Wo ehsas h mera
Jo dil se rista nibhata chala gya
Wo ek prinda
Jo mujhe mujhse milata chala gaya….

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ji chahta h

Teri baho m tut kr
Bhikhar jane ko ji chahta h
Meri sanso ko teri sanso se
Milane ko ji chahta h
Tere bina kitne adhure h hum
Bs ye btane ko ji chahta h
Dard itna h Dil m
Aashu bahane ko ji chahta h
Aag lagi h sine m
Khud ko mitane ko ji chahta h
Sb Rishte mita chuke h hum
Bs tera ban jane ko ji chahta h
Apno ki bhidh m tanhai
Tanhai ko apnane ko ji chahta h
Tu sama m patanga hu
Tujh me jal jane ko ji chahta h
Isqk kaho ya pagalpan
Bs tujhe ruh me bsane ko ji chahta h
Teri ankho se aashu
Churane ko ji chahta h
Teri ek muskan pe
Mit jane ko ji chahta h
Teri raho m kante ho agar
Tere Kadmo bichh jane ko ji chahta h…

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तुम्हारे पास समंदर था और मेरे पास पहाड़ दादू

तुम्हारे पास समंदर था सो मचलते रहे ताउम्र
मेरे पास पहाड़ था,
सो भटकता रहा मोड़ मुहानों से ताउम्र।
तुम्हारे पास समंदर की लहरें थीं खेलने उलीचने को
जो तुमने किया,
तटों से टकराती लहरें गिनते रहे उम्र भर
मेरे पहाड़ मुझे ताकीद करते रहे उम्र भर
सावधानी घटी कि गए हजारों हजार फीट नीचे।
पहाड़ अकसरहां कहा करते थे
मैदान भला या पहाड़ तय कर लो
खुद सोच विचार कर लो
फिर निकलो
मगर पेट था कि माना नहीं
चला गया
पहाड़ के सन्नाटे को पीछे धकेल।
पर तुम्हारे पास तो समंदर था-
लहराता
बलखाता
जहां गिरने की कोई निशानी न थी
डूबता भी कौन है किनारों पर बसने वाले
मगर तुमने क्यों छोड़ा समंदर का साथ?
पहाड़ों के दर्द को भूला
भला मैं कब तलब मैदान फांकता
बार बार लौटता रहा पहाड़ मगर
अब पहाड़ ग़मज़दा था
खाली खाली खोखला पहाड़
मौन बस यही कहता रहा
अब मैं भी थक गया हूं
इन मोड़ मुहानों पर जी नहीं रमता
तुम क्या गए सारी रौनकें चली गईं गोया।

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।।ग़ज़ल।।मुस्कुराया न कर।।

।।गजल।।मुस्कराया न कर।।

अब रहने भी दे तू मुझे तड़पाया न कर ।
अपनी यादो के तूँफा से रुलाया न कर ।।

फ़िक्र तो कर मेरे दिल के हालात की अब
उन झूठी अदायें को अब दिखाया न कर।

मेरी दिल की चाहत का तुझे एहसास नही
तो मेरे स्वप्नों में आकर मुस्कुराया न कर ।

ख़त्म हो ही जायेगा तख़लीफो का दौर ।
अब मेरी मुहब्बत को तू आजमाया न कर

ऐ दोस्त तुम्हे हक है तेरी जिंदगी जीने का।
मज़ाक मेरी जिंदगी का भी उड़ाया न कर।

……R.K.M

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Read Complete Poem/Kavya Here ।।ग़ज़ल।।मुस्कुराया न कर।।

रविवार, 23 अगस्त 2015

रक्शाबन्धन

भैय है मेरा अनमोल,
इसका नही कोई तोल-मोल-बोल।
इत्राता बलखाता चहू ओर.
जीत लेता है सबके मन को भोर-भोर।
बलिहारि जाती मै उसपर बारम्बार,
नज्र्र लगने ना पाये उसे कभी भी करतार
इस पार या उस पार,
खुदा से यही दुआ है मेरी,
साथ रुकसत ना हो हम बह्न- भाई का कभी,
और मनाते रहे रक्शाबन्धन का अनोखा पर्व हर साल साथ-साथ ही।

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।।गजल।।हालात के चलते मैं।।

।।ग़ज़ल।।हालात के चलते मैं।।

तुमसे दूर हूँ तेरे जज़्बात के चलते मैं ।।
खुद से मजबूर हूँ हालात के चलते मैं।।

कोई गम नही तू मुझे याद कर न कर ।।
भीगता हर ऱोज हूँ बरसात के चलते मैं ।

ठहर क्यों जाती हो मेरे दायरे के बाहर ।।
वादा तोड़ न पाया तेरी बात के चलते मैं।

मुफ़्त में उम्र गुजार देना भी गुनाह है ।।
पर रोक न पाया औकात के चलते मैं ।।

ऐ दोस्त रब मिले न मिले तू चली आना ।
तन्हा ही रह जाउगा सौगात के चलते मैं।

…….R.K.M

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Read Complete Poem/Kavya Here ।।गजल।।हालात के चलते मैं।।

मेहरवाँ सितारों से सजी तेरी दामन, दामन से झलकता तेरी नूर, कमबख्त दिल को कैसे समझाऊ, ये तो आदत से है मजबूर, की तेरे गेसुओं से खेलूँ, तेरे काजल को निहारूँ, की तेरे आगोश में आ कर, खोल दूँ अपने दिल के दरबाजे, समेट लूँ अपने बाँहों में तुझे, डूब जाऊँ तेरे निगाहों के समंदर में, मै तो एक आशिक हूँ,चाहूँ तुझे, जीवन के उस छोर तक, ना तेरे सिबा कोई और हो, चाहे और भी कोई दौर हो, तू रहमत कर खुदा से, मेरी आरजू है तुमसे, यूँ हीं निगाहें बंद रख, निहारूं तुझे ता उम्र तक । संजीव कुमार झा ६ अगस्त २०१५

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Read Complete Poem/Kavya Here मेहरवाँ सितारों से सजी तेरी दामन, दामन से झलकता तेरी नूर, कमबख्त दिल को कैसे समझाऊ, ये तो आदत से है मजबूर, की तेरे गेसुओं से खेलूँ, तेरे काजल को निहारूँ, की तेरे आगोश में आ कर, खोल दूँ अपने दिल के दरबाजे, समेट लूँ अपने बाँहों में तुझे, डूब जाऊँ तेरे निगाहों के समंदर में, मै तो एक आशिक हूँ,चाहूँ तुझे, जीवन के उस छोर तक, ना तेरे सिबा कोई और हो, चाहे और भी कोई दौर हो, तू रहमत कर खुदा से, मेरी आरजू है तुमसे, यूँ हीं निगाहें बंद रख, निहारूं तुझे ता उम्र तक । संजीव कुमार झा ६ अगस्त २०१५

* तुलसी और कबीर *

तुलसी दास ने चौपाई लिखा ,
कबीर ने साखी सुनाई।
जो होगा और हो रहा ,
सच्ची दिया बतलाई ।।

एक सगुणी दूजा निर्गुणी ,
दोनों ही राम को माने।
कर्म पूजा और मानवता को ,
सच्ची भक्ती जाने।।

एक ने घर-वार छोड़ा ,
राम से अपना नाता जोड़ा।
दूजा गृहस्ती में ,
सन्यासी जीवन बिताई।।

एक काल कि विवेचना दे ,
दूजा समाज कि सुचना दे।
जन जस के तस रहें ,
सुन दोहा साखी चौपाई।।

जन इनकी जयंती मनाए ,
कबीर पंथी कहलाए।
इनके ज्ञान और पंथ को ,
सब ने दिए भुलाई।।

कहे नरेन्द्र सुनो ज्ञानी ,
न बनो तू अभिमानी।
कर्म-धर्म से नाता जोड़ो ,
मानवता को न छोड़ो।।

अगर तुम इन्हें जानते हो ,
अपना गुरू मानते हो।
आडम्बर से बाहर निकालो ,
इनके पंथ को लो अपनाई।।

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शनिवार, 22 अगस्त 2015

कई मजबूरीयाँ जब शाम को घर लौट आती है
समय के मध्य में विश्वास की लौ जगमगाती है

किसी कोने में बैठा छटपटाता दिल मचलता है
अंधेरी रात काली स्याही में जब ङूब जाती है

खुद ही की बात सुनकर जब खुद ही से खौफ लगता है
हर इक का ठेस करना जब, महज इक शौक लगता है

कहाँ जायें किसे बोलें…
कि हमको कुछ है कहना फिर
कहाँ जायें किसे पूछें…
क्या रितियाँ यूँ ही सताती है

ये सारी बीती बातें जब समझ से है परे लगती
नई इक सोच के फिर ख्वाब में वो साथ आती है
खुद ही में मर चुके इंसान को फिर साँस आती है
नया विश्वास लाती है,
वो जब भी पास आती है…!

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फिर...एक उम्मीद दगा दे गई

वक्त की जब सुई बिखरी
तस्सली भी बेरंखी निकली
सदीयाँ लमहों में गुजरी
राहें भी अधूरी निकली

साँझ भी अधंरी बेठी
मेहफिलें भी तन्हा गुजरी
साथ के वादे अधूरे
कई कसमें झूठी निकली

पत्थरों को पूजते पूजते उम्र गुजरी
ना कोई शक्ल बदली
ना कोई सीरत बदली
ख्वाहिशें, चाहते, सब अधूरी निकली
उम्र गुजरी, साँस टूटी …
फिर…एक उम्मीद दगा दे गई
…एक उम्मीद दगा दे गई…!

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देश का हाल देखो ...........!!

    1. धरती रोती, अम्बर रोता,
      रोता तुम हर इंसान देखो !
      बेईमानो की लूट में लुटता
      आज मेरे देश का हाल देखो !!

      दाल, सब्जी अब इतने महंगे
      दाम सुनते भूख मिटती देखो !
      हवा पानी की तो बात न पूछो
      उससे सस्ती हुई शराब देखो !!

      प्यार मोहब्बत जज्बात खो गए
      टूटते परिवारो का जो हाल देखो !
      रिश्तो की कदर कितनी किसको
      वृद्धा आश्रमों जाकर में हाल देखो !!

      इंसानो से कीमती कुत्ते हो गए
      शान -औ-शौकत कमाल देखो !
      यंहा फुटपाथों पर सोते है बच्चे
      वातानुकूलित में रहते कुत्ते देखो !!

      “गौ माता” में अब सिर्फ गाय बची है
      सड़को पर घूमती उनका हाल देखो !
      जो बची गौशालो में, वो भूखी मरती
      मंदिरो में पत्थर के नंदी पूजते देखो !!

      दुश्मन हुआ आज भाई का भाई
      नफरत की फैलती ये आग देखो !!
      बात बात में यहां होते है रोज मर्डर
      सस्ती होती इंसानो की जान देखो !!

      अपने ही लुटे अस्मित अपनों की
      इंसानो का गिरता जमीर देखो !
      धन के लालच में जिस्म बिकते
      किस हद तक गिरा ईमान देखो !!

      प्रशासन आज किस हाल बेबस है
      नेता के आगे उसको झुकता देखो !
      सच्चाई से उठता नही झूठ का पर्दा
      व्यवस्था हुई कितनी लाचार देखो !!

      हाथ बांधकर आज जनता खड़ी है
      अपराधियो का बढ़ता खौफ देखो !
      देश के रक्षक बन गए अब भक्षक
      कैसा लोकतंत्र ये हुआ बीमार देखो !!

      धरती रोती, अम्बर रोता,
      रोता तुम हर इंसान देखो !
      बेईमानो की लूट में लुटता
      आज मेरे देश का हाल देखो !!
      !
      !
      !
      रचनकार ::—
      (डी. के. निवातियाँ _________$$$ )

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जमाने की सूरत

देख जमाने की सूरत अब चेहरो से डर लगता है,
बात नही है गैरो की अब अपनो से डर लगता है…

विश्वास करु किस पर दुनिया मे,
सभी ह्रिदय मे धोखा है..
धूप च्हाव सा प्रेम-विरह,
जीवन का राग अनोखा है..
हर स्च्ची मन्जिल पर भी अब ज्हूट का पहरा लगता है…
बात नही है गैरो की अब………………..

अब खून के रिश्ते खतम हो रहे,
प्रेम कहा अब आखो मे..
स्वार्थ द्देश का मेला देखो,
लगा दिखे हर राहो मे..
रैन तिमिर की बात नही अब सुवहो से डर लगता है….
बात नही है गैरो की अब………………….
देख जमाने की सूरत अब……………………….

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अक्सर दर्द पिया करता हूँ......

दर्द सहने के लिये मै अक्सर दर्द पिया करता हूँ
खामोशियो मे रहने के लिये मै खामोशि से जिया करता हूँ
बात बडी नहि जो किसि रोज धडकन रुक जाये मेरी
मरना वो भि क्या मे तो हर पल मे मरता रहता हूँ

जान है तु मेरी जान क्यु एसी बात मे किया करता हूँ
बेवफाइ पर तेरी मै वफा का जाम पिया करता हूँ
मुस्कुराते चेहरे पर ना देख ले कोइ आन्सु मेरे
रोने के लिये भि मै बरसात का इन्तजार किया करता हूँ

ए बेवफा तेरी वफा से भी ना जाने क्यु अब मे डरता हूँ
शायद आदत है बेवफाइ की इसलीये यादो मे तेरी मरता हूँ
ले हाथो मे खन्जर और चीर दे ये दिल मेरा…. रुक जरा
इसमे तु है चोट कही तुझे ना लग जाये इस बात से मे डरता हूँ

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शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

poem

Hum Ghanghor andhero m navdeep jalane wale h
Patjhad ki kali chhaya m bagan khilne wale h
Khushiyo ki chah nhi krte, Kashto se hum nhi darte
Hum to aandhiTufano ko aukat dikhane wale h
Duniya ki jhuti rasmo se parda hatane wale h
Nafrat ki hr dewaro ko pal m dafnane wale h
Jati nhi jante hum, insa ko khuda mante hum
Hum to hr ek riste ko dil se apnane wale h
Apne Kadmo ki aahat se dushman ko mitane wale h
Halki si ek gurahat se badal ko hatane wale h
Pather bhi pinghla dete hum ,sholo ko b jala dete hum
Hum to Suraj si Garmi ko sine m bharne wale h
Hum aajad parinde tufa m palne wale h
Kanto ki kya parvah ,hum parvat pr Chalne wale h
Dar kr jiya nhi krte , marne se hum nhi darte
H bharat k sapoot ,hum waqt badalne wale h….

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पीड़ा ने अवतार लिया है

पीड़ा ने अवतार लिया है

पीड़ा ने अवतार लिया है
मेरे इन नव गीतों में
आँसू को अधिकार मिला है
झरझर बहना गीतों में

चंचल चित्त है, शून्य चेतना
और भ्रमित है मन भी मेरा
पर पीड़ा का परिचय देकर
जीत रहा तू मन भी मेरा

पीड़ित मधुपों का है तब से
गुंजन मेरे गीतों में
पीड़ा ने अवतार लिया है
मेरे इन नव गीतों में

संताप मिला अभिशाप सहित
खुशी खुशी मैं ले आया
हुआ मुग्ध आँसू मोती से
चुन चुन झोली भर लाया

गँूथ रहा अब अश्रु मोती ही
अर्पित करने गीतों में
पीड़ा ने अवतार लिया है
मेरे इन नव गीतों में

कंपित अधर, कंठ विहीन मैं
शब्द भम है अति क्लेश में
पर रेखांकित तूने कर दी
अचल सुछवि काव्यवेश में

और तभी से बढ़ा दिया है
दर्प दर्द का गीतों में
पीड़ा ने अवतार लिया है
मेरे इन नव गीतों में

गोदी में ले, मैने चाहा
तुम कुछ गीत सुना जाते
पर पलना पीड़ा का देकर
आँखों आँसू छलकाये

आँसू का संसार तभी से
लुक-छिप रहता गीतों में
पीड़ा ने अवतार लिया है
मेरे इन नव गीतों में

नूतन परिचय हर पीड़न का
लगता अपना पहचाना
जीवित होता जिससे हर पल
पापकर्म में पछताना

माया मिथ्था का अहं सजा है
मेरे इन नव गीतों में
पीड़ा ने अवतार लिया है
मेरे इन नव गीतों में

सुनकर मेरे गीतों को तुम
आँसू जो जो भर लाये
भक्तिभाव से उनको चुनकर
मैंने गीत बना डाले

तब से बहती धारा तेरी
निर्मल हो इन गीतों में
पीड़ा ने अवतार लिया है
मेरे इन नव गीतों में

पीड़ा के सागर में उतरा
मेरे गीतों का सरगम
रहा सिसकता बैठ सिराहने
बनकर तू मेरा हमदम

तब से विवश वेदना ने भी
वास किया है गीतों में
पीड़ा ने अवतार लिया है
मेरे इन नव गीतों में
—- ——- —- भूपेंद्र कुमार दवे

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आँसू है कुछ ऐसा पानी

आँसू है कुछ ऐसा पानी

आँसू है कुछ ऐसा पानी
गीतों में है झर झर बहता
भारी मन मेरा भी जैसे
पलकों में है सब कुछ कहता

तोड़ रहा शब्दों के पत्थर
बहता आँसू भीतर भीतर
अर्थ वही है, दर्द वही है
हर आँसू है अक्षर अक्षर

लिखना चाहूं लिख न सकूं तो
आँसू मेरा मुझपर हँसता
आँसू है कुछ ऐसा पानी
गीतों में है झर झर बहता

नाव नहीं, पतवार नहीं है
दर्द भरी मँझधार मिली है
आँधी ले हर आह उठी है
आँसू में पीड़ा उभरी है

व्यथा वेदना की लहर तले
पंक्ति बद्ध हो आँसू बहता
आँसू है कुछ ऐसा पानी
गीतों में है झर झर बहता

तारों से कुछ कंपन लेकर
काँटों से पीड़ा को बुनकर
हर आँसू जो बनता नश्वर
रचता जाता गीत निरंतर

क्षण-भंगुर पीड़ा का झरना
हरदम गीतों में है बहता
आँसू है कुछ ऐसा पानी
गीतों में है झर झर बहता

मन कहता उस पार चलूं मैं
दर्द उठे, चुपचाप सहूं मैं
बहता आँसू रोक सकूं मैं
नम पलकों का मीत बनूं मैं

गीत लिखूं कुछ ऐसा जिसमें
दर्द भरा अक्षर हो हँसता
भारी मन मेरा भी ऐसा
आँसू बनकर सब कुछ कहता

आँसू है कुछ ऐसा पानी
गीतों में है झर झर बहता
—- ——- —- भूपेंद्र कुमार दवे

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राम वनगमन

राम वनगमन

अयोध्या के राजा दशरथ का निर्णय
सरयू नदी किनारे अयोध्या
अयोध्या का राजा दशरथ ज्ञानी और सत्य-पराक्रमी
दशरथ की रानियाँ तीन और राजकुमार चार
था उसका खुशियों से भरा संसार
दशरथ हुए वृद्ध, आया मन में यह विचार
मर्यादावान, सर्वगुण संपन्न, गुणी
नीति निपुण, अस्त्र-शस्त्र में निपुण,
क्षत्रिय धर्म को पालने वाला
रामचन्द्र ही उपयुक्त है सिंहसान का अधिकारी
सबके लिए होगा वह सुखकारी
कौशल्या का बेटा राम था सबसे बड़ा राजकुमार
सब भाई होते उस पर बलिहार
दशरथ ने मंत्रीमंडल की सभा में रखा यह प्रस्ताव
मंत्रीमंडल ने स्वीकार किया प्रस्ताव
सुमंत्र संदेशा ले कर गया राम के पास
राम शीघ्र ही वहाँ आया राजा के पास
दशरथ के वचन सुनकर राम को हुआ हर्ष अपार
राम ने मित्रों को सुनाया समाचार
दशरथ ने नगर मे घोषणा की ऐसे
राम का अभिषेक होगा कल सुबह हो उत्सव जैसे
राम सखा सब आनंद मनाते
नगरवासी सब मंगल गान गाते
नगरजन यत्र तत्र, यहाँ वहाँ, नगर सजाते
इधर-उधर, जहाँ-तहाँ, मोद मनाते, गीत गाते
हो गया जैसे त्यौहार, तोरण लगाते, ढोल बजाते,
सबकी ज़ुबान पर एक ही बात
सब का प्यारा, साँवला राम का होगा राज
माताओं मे छाया उल्लास
महलों में छाया हर्षोल्लास
कैकेयी के वरों की मांग
मैके से आई कैकेयी की मुखिया दासी
मंथरा को राजा का निर्णय न भाया
उसने कैकेयी को उकसाया
बोली राजा दशरथ की है चाल
भरत को क्यों भेजा ननिहाल
राम का राज होगा कौशल्या करेगी राज
और वह पाएगी एक दासी जैसा व्यवहार
उसे अपमानित दासी का जीवन जीना होगा
मालूम नहीं भरत का क्या होगा
मंथरा ने कैकेयी को सुझाया
देवासुर संग्राम में पाये दो वरों को याद दिलाया
उनको मांगने का उचित समय है आया
अपने भाग्य को बदलने का सुनहरा अवसर है आया
एक वर से भरत को राजगद्दी
दूसरे वर से राम को चौदह बरस का वनवास
मंथरा की चाल कैकेयी को भा गई
कैकेयी अपना श्रृगांर उतार कोपभवन में बैठ गई
दशरथ का उलझन में होना
राजा दशरथ ने कैकेयी को अपना विचार बताया
कैकेयी ने देवासुर संग्राम को दोहराया
कैकेयी ने दोनो वरों की माँग की
एक से अपने बेटे भरत के लिए राजगद्दी
और दूसरे से राम के लिए चौदह बरस का वनवास
दशरथ को कैकेयी के वचन वाण से लगे
दोनों वरों को सोचकर पछताने लगे
दशरथ बड़े सहम गए हुआ वज्रपात
राजा कैसे भेंजें अपने प्राणप्रिय राम को बनवास
कैकेयी को बड़ा समझाया
पर कैकेयी को कुछ समझ न आया
रघकुल रीत सदा चली आई
प्रान जाए पर वचन न जाई
दशरथ कैकेयी के वचन कैसे मानते
राम का विछोह वह सह नहीं सकते
कुपित, हठी रानी न मानी
जबतक रानी की बात दशरथ ने न मानी
कैकेयी के वचनों ने दशरथ को उलझन में डाल दिया
उनकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया
कल सारी नगरी उत्सव मनाएगी
गली-गली बजेंगे नगाड़े
नगर महल जहाँ-तहाँ होंगे उत्सव
नगरवासी खुशियाँ मनाएँगे
ए कैकेयी तू क्यों बात बिगाड़े
तेरी कुछ ओर माँग है तो बता दे
कैकेयी ने बंद कर लिए कान
सोच रही थी कैसी होगी उसकी शान
क्यों सुने वह किसी की बात
उसका बेटा भरत करेगा राज
दशरथ बेटे राम के बिना चौदह बरस कैसे जी पाएँगे
वह उसका का वियोग सह नहीं पाएँगे
राजा बार-बार मूर्छित होने लगे
मछली की तरह तड़पने लगे
कोपभवन में कोई अंदर न जा रहा था
कोपभवन से कोई बाहर न आ रहा था
कोपभवन की घटना का किसी को पता न चला
कोई न जाने कोपभवन में क्या हुआ
कैकेयी का राम को आदेश सुनाना
सूर्योदय के समय वशिष्ठ पधारे
राजा की हालत देखकर धीरे-धीरे कदम बढ़ाते
राम शीघ्र वहाँ महल में बुलवाया गया
आकर पिता तथा माता को शीश झुकाया
पिता थे क्यों बेहोश कुछ समझ न पाया
कैकेयी ने राजा का नाम लेकर अपना आदेश सुनाया
कैकेयी का मन हर्षाया
अपनी माँग को पूरा करते पाया
राजा ने उसे दो वर थे दिए
आज उन्होंने वे वर पूरे किए
बस इतनी सी है बात
क्यों कर रहे इतना विषाद
एक वर से राजा ने दी भरत को राजगद्दी
दूसरे वर से उसको चौदह बरस वनवास
राम सुनकर घबराए नहीं
उसे राजसिंहासन का कोई लोभ नहीं
उसके प्रिय भाई भरत को मिले राजगद्दी
उससे बड़कर कोई दूसरी अच्छी बात नहीं
दशरथ कहते राम का नाम और कुछ सूझता नहीं
पिता हों दुखी उसे यह स्वीकार नहीं
राम ने खुशी-खुशी वनवास स्वीकार किया
कल प्रातःकाल ही वन जाने का निश्चय किया
राम महल से बाहर आये
राजा अस्वस्थ है सबको यह बताए
कल सुबह उसको वन में जाना है
पिता का वचन निभाना है
बात फैलती गई नगर में अवसाद छा गया
सब पूछने लगे ऐसा क्यों हुआ
नर जो चाहे न मिले वही मिले जो चाहे रचनाकार
नहीं बदल सकता मानव चाहे जितना यत्न करे प्रयास
राम का माता कौशल्या को सूचना देना
राम ने सबसे पहले कौशल्या को सूचना दी
आरती उतारने की मनाही की
पिता की आज्ञा का पालन करना है
उसको कल सुबह चौदह बरस के लिए वन जाना है
आरती की थाली हाथ से छूट गयी
माता कौशल्या शोक में डूब गई
पिता ने दी राजगद्दी भरत को
पर वनवास क्यों उसके साँवले सलोने राम को
कौशल्या भी उसके साथ जाने को तैयार हुई
राम ने पिता की हालत बताई
राम ने माँ को बहुत विश्वास दिलाया
चौदह बरस बीतते ही लौट आएगा ढांढस बंधाया
रामका पत्नी सीता को सूचित करना
जननी से ले विदाई
सीता को बात बताई
पिताने उसे दण्डकारण्य वन का सम्पूर्ण राज दिया है
कल सुबह ही चौदह बरस के लिए प्रस्थान करना है
सीता भौचक्की हो गई
उसे भी साथ जाना है
राम ने कहा उसे पिता की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना है
सीता ने कहा उसे पत्नि धर्म निभाना है।
राम ने सीता को वन का भय दिखाया
वन का जीवन बहुत कठिन है बताया
कौशल्या ने भी सीता को बहुत समझाया
महलों को छोड़कर वन में रहना उचित नहीं समझाया
सीता ने पत्नि का धर्म क्या है उसका अहसास कराया
आखिर सीता का साथ जाना ही उचित पाया
लक्ष्मण का राम के साथ जाने की ज़िद करना
लक्ष्मण भी राम के साथ जाने को तैयार हुआ
उर्मिला को कुछ न बताया
राम ने उसे भी बहुत समझाया
पिता का हाल बताया
नहीं रह सकता वह राम बिना महल में
विधि ने बदल दिया सब का संसार एक झटके में
बिगड़ गया सब खेल रंग में भंग हो गया
छूट गया महल वन ही महल हो गया
जहाँ राम है वहीँ लक्ष्मण है
कल सुबह ही राम के साथ वन में जाना है

राम का वनगमन
तीनों सूर्योदय से पहले
कैकेयी और पिता से वन जाने की आज्ञा मांगने आए
साथ में सीता और लक्ष्मण भी आए
तीनो को चौदह बरस वन में
वल्कल वस्त्र पहनने की आज्ञा दी
राजा दशरथ अभीतक बेहोश पड़े थे
बार-बार कराह रहे थे
राम ने सबको प्रणाम किया
गुरुओं की वंदना की
बात फैलती गई
नगर में अवसाद छा गया
ढोल नगाड़े बंद हो गए
सब एक दूसरे से पूछने लगे ऐसा कैसे हुआ ,क्यों हुआ
कोई न बता सका यह कब, कैसे हुआ , क्यों हुआ
माता कैकेयी की आज्ञा
और पिता का मौन सम्मति समझ कर
तीनों ने साथ-साथ वन की ओर प्रस्थान किया
राम के वनगमन से सब की आँखे छलछलाने लगी
दशरथ ने आँखें खोलीं सुमंत्र को बताया
तीन-चार दिन घुमाकर वापिस ले आना
नगरवासी इकट्ठे हो गए
राम के वनगमन से निराश हुए
वन चले रघुराई
अयोध्या में उदासी छाई
नगरवसी एक दूसरे से पूछने लगे
राम वनगमन का कारण पूछने लगे
कैसी है माता जो बेटे को वन में भेज दिया
सीता और लक्ष्मण को भी क्यों भेज दिया
नगरवासियों को छोड़,
अयोध्या को सिर नवाकर
अयोध्या का त्याग कर तीनों आगे बढ़ चले
राम ने न मुड़कर देखा
महल से बाहर आए रथ में बैठ गए
अयोध्यावसी पीछे चलते रहे
रथ चलता रहा, लोग नंगे पैर दौड़ते रहे
यह सोचते कि वे चौदह बरस उनके दर्शन न कर पाँएगे
वे इतने बरस उनके बिना कैसे जी पाएँगे
विचलित राम की आँखों में आँसू भर आए
लोग खड़े रहे जबतक राम ओझल न हुए
लोग कहते राम लौट आओ
राम लोगों को कहते लौट जाओ
लोग लौटने के लिए तैयार नहीं
राम लौटने के लिए तैयार नहीं
जहाँ-जहाँ रथ जाता
लोग दौड़-दौड़ कर राम के दर्शन करने आने लगे
राम मत जाओ हमें छो़ड़कर मत जाओ गिड़गिड़ाने लगे
लोग रोते और कहते राम मत जाओ

तमसा के तट पर
राम ने सबसे पहले तमसा नदी के तट पर
घासफूस की सथरी पर पहली रात बिताई
नगर निवासयों को सोया छोड़ राम आगे बढ़ गए
निषाद ने अपनी नाव से दूसरे किनारे पहुँचाया
श्रृगंवेरपुर गंगा के तट पर पहुँचाया
गंगा को नाव से पार किया
जटाओं का मुकुट बनाया
भरद्वाज मुनि के आश्रम के पास पहुँचाया
अत्रि ऋषि के आश्रम में उसकी पत्नि अनुसूईया से मिलाया

राम चित्रकूट में
यमुना को पार कर चित्रकूट पहुँचे
चित्रकूट में कुटिया बनाकर आसन जमाया
चित्रकूट दण्डकारण्य में दस साल का समय बिताया
मुनि वाल्मीकि मिलने आए
राम को उपदेश सुनाए
कई ऋषि मुनि दर्शन करने आने लगे
राम ऋषि-मुनियों से शिक्षा ग्रहण करने लगे
जैसे प्यासी गौ भागती है पानी के लिए
शाम को भागती है अपने बछड़े को मिलने के लिए
वैसे लोग भी दिन प्रतिदिन चित्रकूट में आने लगे
राम का दर्शन कर अपनी प्यास बुझाने लगे

दशरथ का स्वर्ग सिधारना
कर्म की गति अति कठिन है
जिसने जन्म लिया है
उसका मरना भी अवश्य है
अयोध्या सूनी हो गई
दशरथ को श्रवण के माता-पिता का श्राप याद आया
सुमंत राम को छोड़कर अकेला लौट आया
क्षत-विक्षत, घायल राजा दशरथ रो पड़े
करने लगे विलाप और स्वर्ग सिधार गए
राम का वनगमन दशरथ की मृत्यु का कारण हुआ
तीनों रानियां विधवा हो गईं
सारे राज्य में शोक छा गया
सारी प्रजा उदास हो गई
अयोध्या सूनी हो गई
भरत का ननिहाल से लौटना
दूत भरत और शत्रुघ्न को वापिस लाया
शोभाहीन अयोध्या में सन्नाटा था छाया
भरत नगरवासियों का आर्तनाद सुन न पाया
पिता की मृत्यु सुनकर बड़ा व्याकुल हुआ
माता कैकेयी पर अति क्रोध आया
भैया राम का वनगमन न सुहाया
उसे माता का दिलवाया पद न भाया
अपनी माता को कठोर वचन सुनाये
पिता का दाह-संसकार कर सब कर्तव्य निभाए
माताओं, गुरूओ तथा अयोध्यावासियों ने साथ दिया
राम को वापिस लाने का निर्णय किया

भरत चित्रकूट की ओर
राम को लौटाने चित्रकूट की ओर कूच किया
राम ने भरत का आलिंगन किया
भैय्या राम को बहुत मनाया
पिता हैं स्वर्ग सिधारे अयोध्या सूनी हो रही
माता ने जो पद दिलाया है वह उससे प्रसन्न नहीं
कैकेयी भाईयों का प्रेम देखकर अति लज्जित हुई
विघ्न डालने के लिए क्षमा माँगने लगी
पिता की आज्ञा का पालन करना अनिवार्य है
अब राम का लौटना नमुमकिन है
राम और भरत अपनी बात पर अड़िग रहे
भरत का प्रेमभक्तिभाव देखकर राम पिघल गए
राम ने अपनी पादुकाएँ दी
भरत ने पादुकाएँ अपने सिर पर धारण की
सीय अनुज से आज्ञा पाई
ले चले पादुका सिर धराई
भरत का राम बिना लौटना
भरत राम बिना अयोध्या लौट आए
महल त्याग वल्कल वस्त्र धारण किए
नन्दिग्राम में एक कुटिया बनाई
सिर पर बालों की जटा बनाई
वहाँ कुशा बिछाकर आसन जमाया
कंदमूल को अपना आहार बनाया
पादुकाओं को सिंहासन पर स्थापित किया
राम के नाम से राज किया

राम पंचवटी में
दस साल का समय दण्डकारण्य में व्यतीत हुआ
कितने मौसम आये जीवन बीत गया
दशरथनंदन, कौशल्यानंदन, सीतापति राम
चित्रकूट छोड़ पंचवटी की ओर बढ़ चले
पंचवटी में अपनी कुटिया बनाई
शूर्पणखा ने लक्ष्मण से नाक कटवाई
वहाँ रावण ने सीता का हरण किया
कितने राक्षसों का मरण हुआ
हनुमान ने लंका जलाई
राम ने रावण पर विजय पाई
रावण के भाई विभीषण ने राजगद्दी पाई
सीता को रामने स्वीकार किया
चौदह बरस का वनवास समाप्त हुआ
रामका वन से प्रत्यागमन
चौदह बरस का वनवास समाप्त हुआ
राम, सीत और लक्ष्मण का अयोध्या में आगमन हुआ
सब ने उनका अभिनंदन किया
रामराज्य स्थापित हुआ।
अयोध्या में फिरसे उत्सव आरम्भ हुआ ।
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बेचिराग रास्ते

क्या जिन्दगी यूंही गुजर जाएगी,
सोचता हूं यही होगा पर ना हो खुदा के वास्ते,
फिर वहां शम्मां भी क्या करेगी योगी,
जब चुनतें ही हैं हम बेचिराग रास्ते,

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यादें

चलते चलते थम से गए
पेड़ों की छाँव में
पांव ठिठक कर रह गए
यादों के गाँव में
कदम भी मद्धम हो गए
रफ़्तार अपनी छोड़ कर
इक इक नज़ारा याद आया
बढ़ते हुए हर मोड़ पर
याद आया फिर वोः बालपन
दिल वोःपुरसुकून सा
बचपन की कुछ सहेलियां
कुछ यौवन की मस्त पहेलियाँ
आयी याद खिलन वोः धूप की
और जाड्डे की सर्द रातें भी
पंख लगाये उड़ता था मन
हल्का हो बादलों की तरह
न सीमाओं का ही बोध था
न थीं कोई पाबंदियां
सुहाना था बहुत वोः बचपन का आलम
बेफिक्र मन खिलखिलाने का आलम
ताज़ा हैं वोः यादें आज भी
जैसे कल की ही तो बात हो
छिटकी हुई सी चांदनी और
और तारों भरी वोः रात हो

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गुरुवार, 20 अगस्त 2015

गीत-शकुंतला तरार- अलगनी में टांग दिया

अलगनी में टांग दिया
अलगनी में टांग दिया जीवन की साँस को
धूल में उड़ा दिया यौवन की फांस को

1-सूपे से फटक रही धड़कन फट्टाक से
ढांपती झरोखे को नैनन कपाट से
सींके में लटकाया चाहत की आस को
मूसल से कूट दिया कोमल एहसास को

2- खूंटी में अरो दिया एक एक सपने को
कोलकी में धांद दिया चिमनी संग तपने को
शूल से चुभो दिया भावना की प्यास को
जाते में पीस लिया मादक मधुमास को

3-छानी में सूख रहे यौवन के फूल हैं
खपरों में जम रहे जो बेबसी के धूल हैं
आंसुओं से भिगोया है रिमझिम बरसात को
धुंध से सजाया है पूनम की रात को
शकुंतला तरार

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गीत- शकुंतला तरार- नीले नभ में परिंदों के संग-

”नीले नभ में परिंदों के संग”
नीले नभ में परिंदों के संग काश अगर मैं उड़ पाती
कर अचम्भित बादलों को उनसे ही मैं जुड़ जाती॥

1 -बरस पड़ती सावन के संग धरा को देने हरियाली
खुशियाँ भरती आँगन में छूते ही बनती छुई-मुई
प्रेम-प्रीत का रस बरसाने अनंत गगन को भरमाती
कर अचम्भित बादलों को उनसे ही मैं जुड़ जाती ॥

2 -स्याह व्योम संग झुक जाती शीतल हवा जब सहलाती
फूलों मुस्कान देख बागों में मुग्ध समा जाती
अनुपम सौंदर्य लिए मन में अनचिन्ह सपनों में खो जाती
कर अचम्भित बादलों को उनसे ही मैं जुड़ जाती ॥

3 -होगा क्या अस्तित्व मेरा पागल बादल ये क्या जाने
क्यों चाहूँ उड़ना नभ पर बेदर्द ज़माना क्या जाने
मन अभिलाषाएं मुझको मृगतृष्णा में भटकाती
कर अचम्भित बादलों को उनसे ही मैं जुड़ जाती॥
शकुंतला तरार

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मूर्खों को हमने सर बिठाकर रखा है

एक दिन किसी ने मुझसे पूछा
तलवार ज्यादा मार करेगी या फूल,
मैंने कहा, तलवार,
तो उसने कहा
फिर कविता में इतना
रस क्यूं,
सीधे कहो न कि मूर्खों को हमने सर बिठाकर रखा है,

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बुधवार, 19 अगस्त 2015

माफ़ कीजियेगा..... कुछ भी लिखता हूँ !!

    1. माफ़ कीजियेगा….. कुछ भी लिखता हूँ !!

      एक दिन राह चलते मुलाक़ात हुई एक नेताजी से
      मैंने पूछा,ये बदनामी का ताज तुहारे हिस्से क्यों है,
      प्रसन्न मुद्रा से बोला जिसे तुम बदनामी कहते हो
      इससे मैं अपनी सात पुश्तो का इंतजाम करता हूँ !!

      माफ़ कीजियेगा….. कुछ भी लिखता हूँ !!

      आगे बोला, वक़्त बदल गया, दोस्त अब इक्कीसवी सदी है
      परिस्थिति अनुकूल व्यवस्था परिवर्तन जरुरी समझता हूँ !
      इसलिए हमने खादी त्याग, विलायती सूट बूट अपना लिए
      और अब अपने सर की टोपी उतार जनता को पहनाता हूँ !!

      माफ़ कीजियेगा….. कुछ भी लिखता हूँ !!

      बात सिर्फ इतने में ही ख़त्म हो जाती तो भी ठीक था
      धारा प्रवाह बोलते हुए महाशय ने और कई राज खोले
      जनता का बेबस और लाचार बने रहना जरुरी ये बोले
      इसलिए कुछ अपराधिक तत्त्वों का निर्माण करता हूँ !!

      माफ़ कीजियेगा….. कुछ भी लिखता हूँ !!

      स्वंय अनपढ़ होकर पढ़ी लिखी जनता को बनाता हूँ
      यथास्तिथि अनुसार गूंगा बहरा बनके देश चलाता हूँ
      सत्य हो या असत्य, सबको मै एक नजर से देखता हूँ
      अपना विकास ही सबका विकास नारा देकर चलता हूँ !!

      माफ़ कीजियेगा….. कुछ भी लिखता हूँ !!

      माफ़ कीजियेगा.ऐसे कुछ भी लिखता हूँ !!
      मै लोकतंत्र का एक सम्मानित व्यक्ति हूँ
      जनता को बहलाना फुसलाना मेरा धर्म
      इसलिए जनहित का नेता कहलाता हूँ !!

      माफ़ कीजियेगा….. कुछ भी लिखता हूँ !!

      माफ़ कीजियेगा ऐसे, कुछ भी लिखता हूँ
      लेखक न कवि, न कोई उपाधि रखता हूँ
      दिल में सुलगते जज्बातों को संजोकर
      कभी-कभी कागज़ के टुकड़े पर रखता हूँ !!

      माफ़ कीजियेगा …………..ऐसे ही कुछ भी लिखता हूँ !!
      ऐसे ही कुछ भी लिखता हूँ, ऐसे ही कुछ भी लिखता हूँ !!
      !
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      रचनाकार ( डी. के. निवातियाँ )

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