गुरुवार, 30 जुलाई 2015

बिटिया रानी

मेरे परिवार की बगिया
अापसी प्यार एवं स्नेह
से लहलहाया, हर्षाया
खिला एक नन्हा प्रसून।
पुत्र के आगमन पर
खुश हुए सभी,
दादा-दादी,पापा,चाचा
मामा एवं नाना-नानी
खुश तो थी मैं भी बहुत
परंतु,
मन में उठी एक कसक
काश्
होती एक पुत्री भी मेरी।
तीन साल बाद
फिर से मेरी गोद भरी
इस बार आंचल में मेरी
आई एक नन्ही परी।
गोल-मटोल व कोमल ऐसी
जैसे गुलाब की हो पंखुरी।
धन्य हुई पाकर उसे,
मेरी हुई वह आस पूरी।

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उजाला

तिनको ने तुके जोड़ी
पत्तो पे नशा छाया
शायद किसी गजल ने फिर अपना घोसला बनाया
कुछ दूर बज रही थी जो मंजरी लयो की
झुक कर उसी का चेहरा माथे के पास आया
शब्दों को फिर सुंघा मैंने
अर्थो को फिर चूमा मैंने
छन्दो की सीपियों को फिर अपने हाथो पर उठाया मैंने
रफ़्तार से सहम कर छप्पर में जो छिप रही थी
वापस बुला के उस संवेदना को लाया मैंने
गलियो में रौशनी है
सड़के भी अब चुपचाप है
अच्छे सभी पडोसी
मन में घर बसाये है
खुद को बहुत सवारा मैंने
फिर जोर से पुकारा मैंने
तब ही इक पंछियो का टोला
आँगन में मेरे उतर आया
पंखो पे उनके मैं भी अपना नाम पता लिख दूँ
इस लोभ ने मुझे बहुत छकाया

कनक श्रीवास्तवा

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शब्द

जब तक शब्द नहीं मिलते
कविताये लिखी नहीं जाती
बेवजह कलम को कागज़ पर फेरने से क्या होगा
चिंदी चिंदी करके बटोरता हूँ
मेहनत से पुराने लम्हों को
करने को पहचान की कोशिश
उसमे छुपे हुए चेहरे को |
जब तक सलवटे नहीं मिटती
चेहरा पहचाने नहीं जाते
बेवजह उन लम्हों को घूरने से क्या होगा |
कितना खुश रहते है बच्चे
इनका कोई अतीत नहीं
बस्ता है जो ह्रदय में इनके वासनामय वह संगीत नहीं
जब तक उम्र नहीं होती
दुःख साथ नहीं आते
पर बेवजह बचपन का अभिनय करने से क्या होगा |

कनक श्रीवास्तवा

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यकीन आता नहीं

अँधेरे में कोई खुद को तलाशता नहीं
हवा खुद आती है कोई लाता नहीं
आसमान पर चमकती बिजली
असहाय है ,कड़क के गिरती है
कोई संभालता नहीं |
धुएं की धुंध में कुछ सामने नजर आता नहीं
दुनिया के हर रंग से उठ चूका है यकीन आज
अब तो इंसान को खुद पर यकीन आता नहीं
जहर हाथो में लेकिन कायर मर पाता नहीं
जिंदगी से है खौफ , मौत से यारी करता नहीं |
जिंदगी क्या है पूछता फिरता है कनक
वह नादान जो खुद को समझ पाता नहीं |

कनक श्रीवास्तवा

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ससंकित

हम चाहे जितना
पढ़ लिख लें
दुनिया घूम लें
दोस्तों-परचितों की टीम कड़ी कर लें
हर जगह उम्र की बुजुर्गायित
बहुत मायने रखती है

मानता हूँ
भवन की चमक
ईट की बानी दीवारों से होती है
मगर वे दीवारे भी
पत्थरों की नीव पर ही खड़ी होती है
और पत्थर
एक दिन में नहीं तैयार होते

तमाम सर्दी गर्मी बरसात
झेल चुके दरख़्त
आंधियों में भी
जल्दी नहीं गिरते…….

भविष्य का भविष्य
जहाँ टिका रहता है बीते वर्त्तमान पर
वहीँ वर्त्तमान के लिए भी
बीते कल का साथ जरूरी होता है……

जो कल के लिए
कल को साथ लेकर नहीं चलते
उनका आज भी सदैव
ससंकित बना रहता है……

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sashankit

hum chahe jitna
padh likh leyen
duniyan ghoomleyen
doston-parichiton ki teem khadi kar leyen
har jagah umra ki bujurgiyat
bahoot mayane rakhati hai…

manta hoon,
bhavan ki chamak
eent ki bani deevaron se hoti hai
magar, ve deevaren bhi
pattharon ki neev par hi khadi hoti hain
aur patthar ek din mein nahin taiyar hote…

tamaam sardi-garmi-barsaat
jhel chuke darakht
aandhiyon mein bhi jaldi nahin jhukte

bhavishya ka bhavishya
jahan tika rahata haibeete vartman par
vahin vartman kr liye bhi
beete kalka saath jaroori hota hai…

jo,kal ke liye
kal ko saath lekar nahin chalte
unka aaj bhi sadaiv
sashankit bana rahata hai….

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जलन

यह जलन.. है सौगात, पूनम की हो जैसे रात,
तू है अँधेरे में दिये की तरह, क्या हुआ अगर अभी है रात?

जनक म देसाई

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बुधवार, 29 जुलाई 2015

तेरी यादें (Gazal)

मेरे इस मायूस दिल में
उनके लिए मुहब्बत आज भी है
बेसक वो बेखबर हैं इस बात से
दिल ने की इबादत आज भी है

यूं चले गए वो मुझे तनहा छोड़ कर
बरसों पुराना दिल का नाता तोड़ कर
इस बात की शिकायत मुझे आज भी है
उनके लिए दिल में मुहब्बत आज भी है

उमीदों के तिनकों से जो महल बनाया था सपनो का
एक पल में ही साथ छूट गया मेरे अपनों का
मगर तेरी यादों की मुझ पर इनायत आज भी है
उनके लिए दिल में मुहब्बत आज भी है

तेरे बिना अब इस दिल को कुछ नहीं भाता
तेरी तरह मुझे यूं भुलाना नहीं आता
मेरी नज़रों में अभी ये सराफत आज भी है
उनके लिए दिल में मुहब्बत आज भी है

तेरे यूं भूलने से ये प्यार काम नहीं होगा
बात ये है की इश्क़ ये इज़हार अब नहीं होगा
तेरी वो मुलाकातें इस दिल में सलामत आज भी है
उनके लिए दिल में मुहब्बत आज भी है

हितेश कुमार शर्मा

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शिकायत तुमसे ......

शिकायत तुमसे और तुम से ही तुम्हारी शिकायत करता हूँ ….
मोहब्बत भी तुमसे, शिकवा भी तुम ही से करता हूँ ….
कई फसाने हैं इस दिल में तुम्हें सुनाने के लिये…..
पर जो आँखों से उतरे आपकी, उन अश्कों से डरता हूँ ….

शिकायत का जवाब शिकायत से करें तो यकीं करता हूँ ….
शिकवों का हिसाब शिकवों से करें तो यकीं करता हूँ ….
बहुत वक्त है अपने जज्बात बयाँ करने के लिये ….
आपकी बातों से नहीं, आपकी खामोशियों से डरता हूँ ….

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मंगलवार, 28 जुलाई 2015

एक महिला की ताकत

उसूल बने है,
तोड्ने के लिए।
परिवार बना है,
जोड्ने के लिए।

एक महिला अपना सब कुछ त्याग कर,
आती है घर बसाने के लिए।
एक मकान को,
स्वर्ग बनाने के लिए।

आए तूफान या आन्धि,
वह अपने सन्स्कारो को नही भूलेगी।
हर कदम पर सभी की सोचे,
अपनी खुशियो को कर के पीछे।

वह अपनी पूरी जिन्दगी,
ख्वाब देख्ती है।
कि एक दिन उसका भी,
घर बस जाए और यही वह उम्मीद करती है।

जब वह छोटी होती है,
उसे सिखाए जाते है सन्स्कार।
ताकि वह जहा भी जाए,
फैलाए बस खुशी और प्यार।

वह सब सहती है,
मगर नही कुछ कहती है।
हर दम रहे तैयार,
चुनौतियो को करे स्वीकार।

सपनो को पूरा करना,
है उसकी इच्छा।
महिला बनके जिम्मेदारी उठाना,
है उसकी कला।

बच्चो से लेकर बडो तक,
मिलता है उसे आशिर्वाद।
दुआए मान्गे सभी के हित के लिए,
इससे बनाए परिवार की मज्बूत बुनियाद।

न करना इस ताकत को नजरअन्दाज,
लेती है वह देवी का रूप कभी-कबार।
फिर नारी शक्ति को दिखाते हुए,
छीन लेती है चैन और करार।

चाहे बेटी हो या मा,
हर काम मे अव्वल आती है।
कोई भी काम अधूरा नही छोड्ती,
आज उसी ताकत का लोग जयजयकार और सम्मान करते हुए उसे सलाम करती है।

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कविता

अब भी सवेरा होता है वैसे ही
अब भी लोग सुबह टहलने जाते है
एक बेतरतीब सी आवाज़े
अब भी गूँजा करती है कानो में
सूरज अब भी वैसे ही निकलता है
खिली हुई धूप के साथ
काम वाली औरत की कर्कश आवाज़
अब भी गूँजा करती है कानों में
अगर नही है कहीं तो बस तुम नहीं हो..
अब भी लोग आते है
सब ठीक है न,कहने के बाद
बगैर मौका दिए
अपनी परेशानियॊं का पुलिन्दा खोल देते है
अब मै सुनता हूँ उन्हें
बेबस धैर्य के साथ
बस नहीं रहता है तो तुम्हारा साथ
अब भी सूरज ढ़लता है
शाम अब भी होती है
बस घर लौटते वक्त अब कोई नही कहता
आज फिर देर कर दी..
अब भी बेनूर अन्धेरो के जाल बिछे होते है
बस नही होता है उसे काटने वाला तुम्हारा चेहरा ..

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तुम प्यारे कलाम चले गए ! ....श्रद्धा सुमन !!

बच्चो का प्यारा,
सारे जहां का दुलारा
भारत माता की
आँखों का तारा !
रोशन था जिसके दम पे मेरा देश
लुप्त हुआ वो नायाब सितारा !!

ब्रह्माण्ड जिसके कदमो में था
फिर भी पैर उसका जमीं पे था
कल जिसने अखबार बेचा था
आज वही अखबारों में छाया था !!

बिताया जीवन जिसने गरीबी में
दिये के उजाले में खुद को तराशा !
जला के करोडो दिलो में चिराग
दुनिया को दे चला जीने की आशा !!

आम इंसान नही वो
कुदरत का भेजा फरिश्ता था !
इस धरा के हर प्राणी से
वो महापुरुष रखता दिल का रिश्ता था !!

नम हुए है नयन आज
तुम प्यारे कलाम चले गए !
दे दुनिया को नयी दिशा
तुम सदा सदा के लिए चले गए !!

डी. के. निवातियाँ !!

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एक दिन ऐसा आएगा (हिंदी लोकगीत गीत)

एक दिन ऐसा आएगा तू..

एक दिन ऐसा आएगा तू..
छोड़ के सब चला जायेगा..२
माटी का ये तन तेरा..२
माटी में ही मिल जायेगा !
एक दिन ऐसा…

फिर तू काहे मूरख प्राणी..
धन की चिंता करता है
बेच के अपनी आत्मा को
फिर भी जिन्दा रहता है
धन तो है बस मन का मेल..२
एक दिन सब धूल जायेगा !
एक दिन ऐसा…

जग का सारा रिस्ता झूठा..
झूठा हर एक नाता है
फिर क्यों फस्के मोह में मूरख
अपना समय गवाता है
एक प्रभु का रिस्ता सच्चा..२
भेद भी ये खुल जायेगा !
एक दिन ऐसा…

एक दिन ऐसा आएगा तू..
छोड़ के सब चला जायेगा..२
माटी का ये तन तेरा..२
माटी में ही मिल जायेगा !
एक दिन ऐसा…

प्रभात रंजन
उप डाकघर,रामनगर
प० चम्पारण

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श्रद्धांजलि (हाइकू )

महान आत्मा
अब्दुल कलम जी
प्रणाम है जी

नहीं भूलेंगे
उनका योगदान
सारा भारत

सबके थे जो
सपने हैं साकार
है नमस्कार

नत मस्तक
सच्चे थे हिंदुस्तानी
दिल रो दिया

युगों युगों में
होता है अवतार
है नमस्कार

आत्मा को शांति
परिवार का दुःख
देश का दुःख

हितेश कुमार शर्मा

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'प्यारे कलाम' ----एक काव्य श्रद्धांजलि

‘प्यारे कलाम’ —-एक काव्य श्रद्धांजलि

रामेश्वरम के लाल कलाम
विज्ञान के ज्ञान कलाम |
प्रगति के मिसाइल कलाम ,
पोखरण के विस्फोट कलाम |
पथ-प्रदर्शक, गतिमान कलाम ,
जीवन सरल, उन्नत कलाम |
प्रगति-पुरुष, युग-पुरुष कलाम ,
जन-जन के प्यारे कलाम |

— कवि कौशिक

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HAUSLA

KARNE KO HAI KAAM KADODO,
HAA KARNE KAA MANN TO HAI |
BHIDNE KI AATURTA ITNI HAI
KOI DUSHMAN TOO HOO |
HAITH PAIR SAB THIK THAAK HAI,
ROOP SALONA .ISSE HALCHAL KYAA HOGI |
LOK HRIDAY MANTHAN HIT ME
KOI VISPHHOTAK AKARSHAN TO HOO |
DHAAK JAMANA KATHIN NAHI
JAMNA MUSHKIL HAI.
BARAS PADE SAMVEG BHALE HI
BHAAL GAGAN SE CHUYE BADAPPAN
AANKHO MEE BACHPAN TO HOO|
CHALTE CHALTE NAHI THAKENGE
JIMMA KISKA PUCHE KANAK
SANNATA SAMNNATA HI NAACHE JWAAL SHIKHA KYU
KHULKAR PEHLE SANGHARSHAN TO HOO |
SAR PAR BOJH RAKHA ,JO USME KAMI NAA AAYI
AUR NAA AAGE ANI HAI
CHAHE BHAAR NA BADLE ,ANGSTHAL KA PARIVARTAN TO HOO |
DARPAN BHI AANKHE NAA CHURANA
DOSH KISI KAA KYAA ?
NETRA KHULE HAI KINTU WOH AKARSHAN TO HOO |

KAANAK SHRIVASTAVA

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PYAAR

PYARR VRIKHSA KI DAAL PAR BAITHA KOI PAKSHI TOO NAHI |
KI JAMANE NE PATHHAR CHALAYA AUR PHURR SEE UDD GAYA |
P[YAAR KISI PATTE PAR GIRI OS KI BUND TOO NAHI
KI SURAJ KI PEHLI KIRAN NE SEHLAYA AUR CHUPCHAAP WOH PIGHAL GAYA |
PYAAR KISI MITTI KA DHELA TOO NAHI , KI TUMNE JAHA JOR SE DABAYA
MASLA AUR WOH HAWA MEE UDA DIYAA |
PYAAR KISI KI DI HUI ROTI KA TUKDA TO NAHI
KI TUMNE MEHNAT SE KAMAYA, AANTO MEE KULBULAYA AUR EK DIN
KI TAAKAT DEKAR PHATT SE FANA HO GAYA |
PYAAR KYAA HAI PHIRR PUCHAA KAANAK NE
ARE PYAAR KOI SHABD TOO NAHI KI SHANDKOSH UTHAYA
AUR KISI KAAGAZ PAR UTAAR DIYA |
PYAAR TO KOI BADA PED HAI SHAYAD
JISKI JADE GEHRI HAI
BEEJ KA TO ATA PATA NAHI HAI
YEH DHEERE DHEERE FALTA FULTA HAI HUMARE BHETAR
NAFRAT AUR DURIYO KO TODTA HAI HUMARE BHETAR
NADI KE UFAAN KA YEH EK SAMAYA HAI
YAHI HUMARA AUR TUMHARA SARMAYA HAI |

KAANAK SHRIVASTAVA

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सोमवार, 27 जुलाई 2015

शायरी

उसको चाहके कीसी और का होना!
मेरे बस में न था..!!
दील तो उसको दे दिया था!
मेरे तो बस आसू थे और कुछ न था..!!

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LAALSA

KABHI TOO THEHREGI AA KAR MUSKAAN MERE CHEHRE PAR
RAAT KI KAALIKH AUR GEHRANE DOO
AUR TEEVRATAR HONE DOO
PRAKASH KI KAAMNA ME KADWAHAT PEENE KI US SEEMA
TAK ABHYAST HONA CHAHTA HUN|
KI MITHASS BHI HOTH SIKODKAR PIYU |
KABHI NAA BHULTE HUE BEETE KAL KI YAADO KO
JISKI PRERNA SE MAI AAJ KO PAA SAKA HUN |
MAI NAHI BHULNA CHAHTA
UN KATHIN PADAVO KA ASTITVA JO UN LOGO SE MILI |
KEHNE KO HAI CHILHCILATI DHOOP
MAGAR YEH DE RAHA HAI MERE ANTAKARAN KO AANCH
AUR MAI USME TAP KAR HO RAHA HUN KANAK
SAMPURNA ROOP ME PURNRUPEN KANAK SURYA KI GATI KE SATH |

MAI NAHI KARTA YAKEEN JAMEEN KI SAMSYAYAO KAA AASMANI SAMADHAAN |
AUR BHULKAR SWAYAM KIUTPATTI AAKASH CHUNE KI KOSHISH ME|
MAI JAANTA HUN ,BHALI BHANTI SAMJHTA HUN
KI KABHI NAA KAR PAUNGAA KHITIJ SE SAKCHAATKAAR
MAGAR YAHI ANTHIN YATRA GATISHEEL Astitva pratiphal BADHYAEGA
MERA AATMVISHWAAS |
ATMAVISHVAAS SE BADI NAHI HAI KOI BHI RAAH,KARM SE
BADA NAHI HAI PRATIFAL |
MAI BADHNA CHAHTA HUN NIRANTAR , SAMAY KI DHADKAN KE SATH
PRATIPAL TEEVRATAR HOTI RAHE ,KHITIJ KO KAREEB AUR KAREEB DEKHNE
KI MERI LAALSA

KAANAK SHRIVASTAVA

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apnapan

jab se mila hun tumse accha lagta hai
har chehre me tera hi accha lagtaa hai
har ek dhaage par chaap hai tera
mere har khoon par khusboo hai teri
phata hi sahi par maa kaa daaman accha lagta hai |
iske pehle aur uske baad ki sudh tumne li hai meri
maanta hun, jaanta hun mai aur sirf mai yaa tum
mere baare mee puchnaa , jhakna yeh dheere dheere accha lagta hai
baar baar too tum dikhti nahi
phir bhi tumhara ehsaan accha lagta hai|
chalo chodho ab phir mujhe dekho
ab thoda bada ho gaya hun mai
ek baar phir mujhe parkho
tumhara is baat par baar baar muskurana accha lagta hai
yadi nahi maanti ki mai ab ho gaya bada too naa maano
tumhare liye mai chotaa hi sahi par ab too maano
tumhara mujh par itna sneh accha lagta hai

kaanak shrivastava

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।।गजल।।इंसान बनाना है ।।

।।गज़ल।।इंसान बनाना हैं।।

अब मंजिलो की राहे आसान बनाना है ।।
हर आदमी को फिर से इंसान बनाना है ।।

क्यूं दिल में थम गया है जज़्बा वो प्यार का ।।
हमदिली का दिल में तूफ़ान बनाना है ।।

न कोई तुमसे रूठे न दिल किसी का तोड़ो ।।
हर महफ़िलो में तुमको निसान बनाना है ।।

माना की सबको मिलती जन्नत नही यहा पर ।।
उनको यही पर रहकर भगवान बनाना है ।।

हर रिश्ता है प्यारा रिस्तो की क़द्र करिये ।।
इस जिंदगी में दोस्ती आसान बनाना है ।।

………R.K.M

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काश ! वो पल मै भी जी पाता !!

    1. क्या क्या बसता मेरे अंतर्मन में,
      मन की व्यथा तुमसे कह पाता !
      जख्म आज भी ताजा है यादो के,
      काश ! तुमको ये दिखला पाता !!

      समझ सकते तुम मेरा मौन,
      न लबो से मैं कुछ कह पाता !
      नजरो ही नजरो में बाते करते,
      काश ! दिल की किताब पढ़ पाता !!

      जब होता मन दुखी व्यथित,
      आकर तनिक समझा जाता !
      मन की उठती पीड़ा पर जो,
      काश ! प्रीत का मरहम लगा जाता !!

      तुम मेरी प्रीत, प्रेरणा तुम हो,
      तुम ही, दोस्ती की परिभाषा !
      धड़कता है ये दिल तेरे नाम से,
      काश ! तुमको ये समझा पाता !!

      भटक सा गया जीवन पथ पर,
      वो मुझसे राहो में टकरा जाता !
      गाकर प्रेम गीत अपने लबो से,
      काश ! मुझे ढांढस बंधा जाता !!

      कर के तुम से दो बाते मीठी सी,
      इस दिल को सुकून मिल पाता !
      सहलाते मेरी भीगी पलकों को,
      काश ! वो पल मै भी जी पाता !!

      डी. के निवातियाँ ________@@@

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तलाश बाकी है

बिना रौशनी के रातें का सफर अब कटता नहीं
बिना मंजिल के ये दिन अब गुजरता नहीं
शाम भी तो अपने आगोश में गम ही लेकर आती है
दिल पर है कुछ ऐसा जख्म जो अब भरता नहीं

बेवजह यूं जिंदगी की खुशी किसने छीन ली
जिंदा हैं मगर किसने ये हमारी जिंदगी छीन ली
खामोश निगाहें अब खुद से ही ये सवाल करती हैं
दिल तो है मगर किसने उसकी धड़कने छीन लीं

इंतजार करूं कि खोया हुआ कोई मुझे लौटा देगा
चलता रहूं कि कोई मंजिल की राह दिखा देगा
इन निगाहों को अब भी उसकी तलाश बाकी है
जो दिल पर लगे मेरे हर जख्म को मिटा देगा

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है मोहब्बत बुरी.. {हिंदी गीत}

है मोहब्बत बुरी.. {हिंदी गीत}

ऐ मेरे दोस्तों तुम जरा जान लो..
है मोहब्बत बुरी ये सदा जान लो
ऐ मेरे दोस्तों…

मैं दिवाना नहीं..मैं बेगाना नहीं..
हैं भला इश्क़ क्या मैंने जाना नहीं
फिर भी इतना कहूँ , तुम जरा ध्यान दो
हैं मोहब्बत बुरी ये सदा जान लो
ऐ मेरे दोस्तों…

ये तराना है वो..ये फ़साना है वो..
जिसमे लुटाते सभी ये जमाना है वो
गम ही मंज़िल है इसकी ये कहा मान लो
है मोहब्बत बुरी ये सदा जान लो
ऐ मेरे दोस्तों..

जिसने इश्क़ किया..मिली उसको सजा..
मौत ढूंढें उसे जिसने की ये खता
तुम न करना कभी ये खता जान लो..
है मोहब्बत बुरी ये सदा जान लो
ऐ मेरे दोस्तों…

ऐ मेरे दोस्तों तुम जरा जान लो..
है मोहब्बत बुरी ये सदा जान लो
ऐ मेरे दोस्तों…

प्रभात रंजन
उपडाकघर रामनगर
प० चंपारण-845106

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YAKEEN

SOTCHTAA HUNN KIS TARAH AB DIN BEETANA THIK HAI
AB TUMHARA MUJHSE DUR JAANA THIK HAI
PHULO ME WOH SUGANDH AATI NAHI
RISHTO ME WOH DARD DIKHTA NAHI
PHIR TOO INKA BIKHARNA HI THIK HAI
TUMHARA MUJHSE AB DUR JAANA HI THIK HAI
KALAM ME AB MERE WOH DHAAR BACHI NAHI
TUMHARE DIL ME AB WOH JUNOON RAHA NAHI
LAKSHYA KAA PHIR BHATAK JAANA THIK HAI
TUMHARA MUJHSE DOOR JAANA HI THIK HAI

GAR DIN BITANA HAI AISE
SAPNO KO BIKHRANA HAI AISE
TOO EK KOSHISH AUR PHIR THIK HAI
SAPNO KA KHIL JAANA PHIR NISCHIT HAI
WAQT SE HAARNA THIK NAHI
TUMHARA MUJHSE AB DUR JAANA MUMKIN NAHI|

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मैं रुका रहा और वक्त आगे चलता गया....

अपनी भी कुछ ख्वाइशें, कुछ सपने थे,
कुछ तस्वीरों में हमें भी रंग भरने थे,
न जाने क्यूँ, यूँ ही डरता गया,
मैं रुका रहा और वक्त आगे चलता गया….

ठहरी हुई जिंदगी को किसी मंजिल की तलाश थी,
कोई हमसफर बनेगा इस बात की आस थी,
मिला, रुका, साथ रहा, फिर आगे निकल गया,
मैं रुका रहा और वक्त आगे चलता गया….

कभी सोचा अपनी किस्मत से मिल आऊँ,
गुलशन में फैली खुशबू को मैं भी पाऊँ,
बस उसी पल का इंतजार करता गया,
मैं रुका रहा और वक्त आगे चलता गया….

रुके रुके भी थक जाऊँगा एक दिन,
जानता हूँ वक्त से हार जाऊँगा एक दिन
जो किस्मत में न हो, उसे कैसे पाऊँगा
अपने ख्वाबों से अपनी दुनिया कैसे सजाऊँगा
यही सवाल अपने आप से पूछता रहा,
मैं रुका रहा और वक्त आगे चलता गया….

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रविवार, 26 जुलाई 2015

अज्ञात कवि

मौत के बाद,
कविओं का क़द्र,
करता है ज़माना I
रोकर क़ब्र ये,
कहता है फ़साना I

मरण के बाद, स्मरण सभा,
और तस्वीर पर दो फूल I
क्या कवि बनना है,
तक़दीर का भूल ?

मत रो क़ब्र पर हमारे !
आँसूओं के तुम्हारे,
नही है तलबगार हम I
हमे दो बस वह प्यार,
जिसके है हक़दार हम !

-पार्थ

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मुस्कानों के प्रिय चुम्बन से

मुस्कानों के प्रिय चुम्बन से

मुस्कानों के प्रिय चुम्बन से
रोम रोम को पुलकित कर दो।
आ जावो, बाँहों में भर लो
पोर पोर की पीड़ा हर लो।

महा मिलन हो जिससे अपना
हर पल कुछ ऐसा कर दो।
कल तक जो हम कह ना पाये
उन बातों को रोशन कर दो।

सुकून भरे लम्हे भी सारे
जीवन की रग रग में भर दो।
गीत गजल में सजल सलौना
अपने अंतः का रस भर दो

प्रीत पथिक बन, मीत सजग बन
ये जीवन सफर सरल कर दो।
दीप प्यार के जगमग करके
घर आँगन रोशन कर दो।

अपनी सांसों के सौरभ से
मन की बगिया सुन्दर कर दो।
मुस्कानों के प्रिय चुम्बन से
रोम रोम को पुलकित कर दो।
———- भूपेन्द्र कुमार दवे
00000

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दो मुक्तक ---- जिन्दगी पर

. दो मुक्तक —- जिन्दगी पर
1
कलियों के खिलने की आवाजें सुनी
शबनम के झरने की आवाजें सुनी
खामुश इतनी है मेरी जिन्दगी
ऑंसू के गिरने की आवाजें सुनी
—- भूपेंद्र कुमार दवे
00000

2
यह जिन्दगी अजनबी-सी लगती है
हर वक्त कुछ अटपट-सी लगती है
उलझ गई जो कँटीली झाड़ियों में
उस मासूम पंखूड़ी-सी लगती है।
—- भूपेंद्र कुमार दवे
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तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं ---- भूपेंद्र कुमार दवे

तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं

कब से तेरा ध्यान लगाये
तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं
पत्थर की इस मूरत में भी
तुझे देख मैं झूम रहा हूं

गूंथ रहा मैं स्वर की माला
भक्ति-रूप की पीकर हाला
झूम उठा ये मन भी मेरा
मिटा हृदय का सब अँधियाला

यह प्रकाश पाकर मैं तेरा
तेरे पथ पर घूम रहा हूं
कब से तेरा ध्यान लगाये
तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं

यह है कंपित लौ जीवन की
क्षीण ज्योति-सी मन मंथन की
टूट टूट कर बिखर रही है
जिसमें काया प्राण किरण की

थर थर कॅपकर स्थिर सी होती
साँस अधूरी फूँक रहा हूं
कब से तेरा ध्यान लगाये
तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं

है काल की बाढ़ में डूबी
नाव कुंआरी टूटी फूटी
और पुकारूँ तुझको फिर भी
साँसें रह जाती हैं टूटी

तेरी लहरें अपने अंदर
गिनता-गिनता, डूब रहा हूं
कब से तेरा ध्यान लगाये
तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं

तू जग का आधार बना है
तुझसे हर श्रंगार सजा है
मेरे आँसू की रचना कर
तू दुख का आधार बना है

मैं जलकण तेरी आँखों का
आँसू बन-बन, टूट रहा हूं
कब से तेरा ध्यान लगाये
तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं

पथ के साथी चलते चलते
रूठे, छूटे पथ पे बढ़ते
पर तेरे कहने में आकर
उठता हर पल गिरते गिरते

है पथ जो बस अंधा मुझसा
उसकी मंजिल ढूंढ़ रहा हूं
कब से तेरा ध्यान लगाये
तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं

यह गहरी जीवन खाई है
अश्रुधार से बनी हुई है
चिर जर्जर है, दर्द भरी है
आशा अजेय बनी हुई है

घायल आँसू के जख्मों को
नम पलकों में ढूंढ़ रहा हूं
कब से तेरा ध्यान लगाये
तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं

तुझको पाने मंदिर जाऊँ
मस्जिद, गिरजाघर हो आऊँ
किन्तु शून्य के अनंत कण में
कहाँ खोजकर तुझको पाऊँ

अपने ही मन के अन्दर अब
चप्पा चप्पा ढूंढ़ रहा हूं
कब से तेरा ध्यान लगाये
तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं।
—- ——- —- भूपेंद्र कुमार दवे

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खुद को पहचान लूँ तो चलूँ ---- भूपेंद्र कुमार दवे

खुद को पहचान लूँ तो चलूँ

बचपन देखा, यौवन देखा
बुढ़ापा भी देख लूँ तो चलूँ
दुनिया को ना पहचान सका
खुद को पहचान लूँ तो चलूँ।

शंका के पलने पर झूला
हिचकोले खा भ्रम में उलझा
ठोकर खाई गिरा सड़क पर
सबने धड़-सर को कुचला

कमर झुकाये लाठी लेकर
अंधी आँखों आहें भरकर
चलना कुछ सीख लूँ तो चलूँ
खुद को पहचान लूँ तो चलूँ।

अहसासों के फूल अनोखे
टूट टूटकर साँसों में उलझे
अंधी अपाहिज बुझी कसमें
बिखर गई यौवन के मद में

अब कुछ वादे हैं सपनों में
सजते रहते जो पलकों में
उनको भी बिखरा दूँ तो चलूँ
खुद को पहचान लूँ तो चलूँ।

बचपन में जो माँ ने दी थी
उन साँसों में महक पली थी
उनका सौदा किया उमर ने
उघार लिये आहों के गहने

यौवन भर यूँ ही पछताने
साँसें गिनने, आहें भरने
गर वह भी छोड़ सकूँ तो चलूँ
खुद को पहचान लूँ तो चलूँ।

जीवन के अवसाद मिटें तो
नाजुक से जज्वात मरें तो
थमी साँस की जलन मिटे तो
रुकी साँस की घुटन घटे तो

कुछ क्षण जीने की छूट मिले तो
कुछ जीने की चाह बढ़े तो
कफन खुद का बुन लूँ तो चलूँ
खुद को पहचान लूँ तो चलूँ।

अँधेरा होना था हो गया
इक चिराग ढूँढ़ लूँ तो चलूँ
बुझे दीप देख थक गया हूँ
इक अपना जला लूँ तो चलूँ

जिन्दगी नहीं, रुह थकती है
यह थकन सुखन बने तो चलूँ
खूब सताते रहे सितारे
खुद किस्मत बदल लूँ तो चलूँ

बचपन देखा, यौवन देखा
बुढ़ापा भी देख लूँ तो चलूँ
दुनिया को ना पहचान सका
खुद को पहचान लूँ तो चलूँ।

—- ——- —- भूपेंद्र कुमार दवे

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मुझे भी कुछ लिखना है..

जब भी देखता हूँ
किसी शायर की शायरी
गीत-ग़जल
या किसी कवि की वो,
मनमोहक, मधुर, मनभावन कविता
मेरे अन्तः मन से
बस यही आवाज है आती
काश…
मैं भी कुछ लिखता!
कुछ छंद, कुछ गीत
चन्द पंक्तियाँ
चार लाईने
नए शेर, नई गज़लें
मेरी अपनी भी होती
मैं भी बनता कवि
किसी जीवंत कविता की,
मेरे लिखे गीतों के बोल भी
होते कही मशहूर
शायद यहीं
मैं भी सुनता मैं भी देखता,
काश! मैं भी कुछ लिखता।
कोई तो हो जो मुझे नई राह दे
मेरी बेचैन चाहतो को
नई चाह दे।
आखिर कौन होगा वो
जो मेरे हुनर को भी देखेगा,
लगा देगा जो पंख मेरे अरमानों को
मेरे नज़रिये को मेरी नज़र से भी देखेगा।
चाहत है, ये आरजू है
जुस्तजू भी मेरी,कि
मैं भी इंसान हूँ
मुझे उन इंसानों में अलग दिखना है
मुझे भी कुछ लिखना है।

प्रभात रंजन
उपडाकघर,रामनगर
प0 चंपारण(बिहार)

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शनिवार, 25 जुलाई 2015

नसीब

जिन्दगी मे,
दो तरह के लोग होते है,
एक है खुशनसीब,
और दूसरे बद्नसीब।

नसीब-नसीब का खेल है मेरे भाई,
हर कोई भाग्यवान नही होता,
एक ही पल मे सब कुछ बदल जाता है,
हर एक काम का वक्त होता है।

हर कोई खूब्सूरत नही,
हर कोई अमीर नही।
ख्वाब एक समान हो सकते है,
मगर किस्मत भिन्न है।

आज के तारीख मे,
कौन मानता है इस।
हर समय बस एक दूसरे को दोषी ठेहराते है,
अपनी नाकामयाबी के लिए।

हर आदमी इस दौड मे शामिल है,
वह अपने आप को दूसरो से तुलना करते रेहता है।
अगर सभी का नसीब एक जैसा होता,
तो हर कोई एक बन्गले मे चैन से सोता।

हर कोई औडी या मर्सेडीस चलाता,
हर बार परिक्षा मे अव्वल आता,
मगर भगवान ने सभी को अलग-अलग मन्जिल दी है,
कठिनाईया भी विचित्र है।

जो लिखा है, सो होकर रहेगा,
इस घटना को घटने से कोई नही रोक पायेगा।
अगर सभी लोगो की किसमत एक जैसी होती,
तो शायद यह दुनिया रन्गीन कभी नही हो पाती।

मेहनत करो, महान बनने के लिए,
दुआए करो, सफल होने के लिए,
ईर्षा तो न करना तुम कभी,
क्योकि, अन्त मे कहलाओगे मतलबी।

उच्च विचार लाते है मान-सम्मान,
ऐसा ही होना चाहिए हर इन्सान,
निडर होकर अच्छे काम करो,
और नसीब के मोहताज न बनो।

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एक दिन.... (ग़ज़ल)

    1. बड़ी हसरत इस दिल की बरसो पुरानी है !
      मेरे संग बारिश में भीग जाओ एक दिन !!

      गिरता हो कतरा जब किसी बूँद का तुम पर !
      मेरे संग उस कतरे में समा जाओ एक दिन !!

      तुम्हे पसंद हो न हो ये बारिश का पानी !
      बस मेरे लिए खुद बरस जाओ एक दिन !!

      रहते हो बड़े खफा खफा अपने आप में तुम
      समझेंगे वफ़ा जो मुस्कुरा जाओ एक दिन !!

      हो जाए दिल की हर मुराद पूरी अपनी !
      अगर तुम मुझ में समा जाओ एक दिन !!

      निवातियाँ डी. के.________@@@

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दर्द गैरों को अपना सुनाओ ना तुम..

दर्द गैरों को अपना सुनाओ ना तुम
सबके हाथों में खंजर है तलवार है
सामने संग तेरे चाहे रो लेंगे वो
बाद खंजर चुभोने को तैयार है ।

प्रभात रंजन

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।।ग़ज़ल।।तेरे इनकार से पहले ।।

।।गजल।।तेरे इनकार से पहले ।।

मायूसी मत दिखावो तुम सुरु दीदार से पहले ।।
भरोसा मैं दिलाऊँगा तेरे इनकार से पहले ।।

कोशिस मैं करूँगा की न निकले आँख से आंशू ।।
अपना दिल बिछा दूँगा किसी बौछार से पहले ।।

बहुत है शौक देखूँ मैं तुम्हारा रात दिन चेहरा ।।
निकल जायेगी जां मेरी तेरे इनकार से पहले ।।

फ़िक्र मत कर कभी भी न तेरा दिल दुखाउगा ।।
न कोई कश्म अब होगी तेरे इज़हार से पहले ।।

अगर मौका मिलेगा तो रब से माग मैं लूँगा ।।
तुम्हे, तेरी मुहब्बत को, किसी भी हार से पहले ।।

………R.K.M

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कविता की क़िस्मत

इन कविताओं का क्या हशर होगा ?
सोचता हूँ,
क्या इनका कोई असर होगा ?
या यूँ ही,
किताबों की क़ब्र में, इनका बसर होगा ?

कहते है की तलवारों से अधिक,
लफ़्ज़ों मैं धार होती है I
इन पंक्तिओं मैं,
दिल की भावनाएँ इज़हार होती है I
गम हो, तो यह रोती है,
और ख़ुश हो,
तो शब्दों की मोती पिरोती है,

मगर, इन आँसुओं और मोतीओं का
क्या कदर होगा ?
सोचता हूँ !
क्या तुम्हारे दिल में,
इनका कोई असर होगा ?
या फिर,
किताबों की क़ब्र में, इनका बसर होगा ?

-पार्थ

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शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

ख्याल-ऐ-दिल चाहता है

तुमसे मिलने को जी चाहता है
हाले दिल बयां करने को जी चाहता है
बस!
इस झूठे ज़माने के कसमकस में हूँ
तुम्हारे साथ मरने और जीने को जी चाहता है

तुम्हारी रज़ा क्या है ये सुनने को दिल चाहता है
तुम्हारे यादों में खोया रहूँ अर्जु-ऐ-दिल चाहता है
तुम्हारी बातें सुनूं, तेरा चेहरा देखूं आँखें भी यही चाहता है
हम दोनों साथ हो जाएं ये बदन चाहता है
क़यामत तक साथ रहें ये गगन चाहता है
आत्मा की तुम परमात्मा हो
आत्मा परमारमा एक हो जाए ये चमन चाहता है
तुम्हें देखूं और स्पर्श करूँ ये मन चाहता है
तुम सुमन में सुगंध की तरह मिल जाओ
ये चमन चाहता है
तुम्हारा सुःख-दुःख मेरा हो जाए ये तेरा सनम चाहता है
हम दोनों मिल कर एक हो जाए तेरा मन चाहता है

तुमसे मिलने को जी चाहता है
हाले दिल बयां करने को जी चाहता है
बस!
इस झूठे ज़माने के कसमकस में हूँ
तुम्हारे साथ मरने और जीने को जी चाहता है!!

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बेवफा लहरें..

समुद्र की लहरें कभी खामोश नहीं रहतीं,
समुद्र की लहरें कभी वफ़ा नहीं करतीं,
उनकी फितरत है लौट जाना,
साहिल को भिगोकर,
लहरों पे कभी यकीन न करना
रेत पर पाँव जमा कर रखना,
वरना, बेवफा लहरें बहा ले जायेंगी,
तुम्हें भी, तलुए के नीचे की रेत के साथ,
समुद्र के किनारे खड़े होना भी जद्दोजहद है,
ठीक वैसी ही, जैसी रोज होती है मेरे साथ,
दो वक्त की रोटी कमाने के लिए,
चुकाने पड़ते हैं, कई वक्त की रोटियों के दाम,
23/7/2015

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इम्तिहान कुछ अभी बाकी है

    1. कुछ कट गयी कुछ कटना अभी बाकी है
      जिंदगी में इम्तिहान कुछ अभी बाकी है

      कुछ हासिल है कुछ करना अभी बाकी है
      वक़्त से दो दो हाथ करना अभी बाकी है

      जो बैठे है उदास आँगन की देहलीज पर
      खुशियाँ बटोरना उनके लिए अभी बाकी है

      यूँ तो कभी की खत्म हो जाती ये जिंदगी
      मगर कुछ लोगो में ईमान अभी बाकी है

      हसरते तो बहुत जमाने की रीत अपना लूँ
      मगर जमीर से इज़ाज़त मिलना अभी बाकी है

      दिया मौका अपने जहाँ की सैर कराने का
      उस परमात्मा से साक्षात्कार अभी बाकी है !!

      डी. के निवातियाँ ______@@@

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आओ स्वंय से मुलाक़ात करे

    1. आओ स्वंय से मुलाक़ात करे
      चन्द लम्हे अपने नाम करे
      छोड़ कर जद्दोजहद जिंदगी की
      कभी वक़्त निकाल खुद से बात करे
      आओ स्वंय से मुलाक़ात करे !!

      सोचते, विचारते, संवारते प्रत्येक क्षण
      देश दुनिया तो कभी आस पड़ोस के लिए
      सोचा नही क्या होगा इस माटी तन का
      चलो त्याग कर सब कुछ अंतर्ध्यान करे
      आओ स्वंय से मुलाक़ात करे !!

      उम्र तमाम गुजारी हमने
      धन दौलत और यश कमाने में
      अच्छा किया, बुरा किया सोचा नही
      चलो एक बार खुद का अवलोकन करे
      आओ स्वंय से मुलाक़ात करे !!

      बैलगाड़ी की तरह खुद को ठेलते रहे
      हँसते रोते जिंदगी के थपेड़े झेलते रहे
      न मिला वक़्त स्वंय को टटोलने का
      चलो आज दिल के रिक्त स्थान भरे
      आओ स्वंय से मुलाक़ात करे !!

      डी. के निवातियाँ __@@@

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मिलन की रात

दिन ढल गया है इक बार फिर से
होगा उनका दीदार इक बार फिर से

चकोर चाँद के लिए है बेकरार फिर से
चाँद भी चांदनी संग तैयार है फिर से

कई मुद्दतों के बाद ये रात आई है फिर से
शरद रातो ने मिलन की आस जगाई ह फिर से

बरसो से दबी तम्मना होगी पूरी फिर से
नहीं रहेगी ये कहानी अब अधूरी फिर से

जमीं आसमा का मिलन क्षितिज पर होगा फिर से
ये भोर तू जल्दी मत होना फिर से

जमीं आसमा का मिलन क्षितिज पर होगा फिर से
ये भोर तू जल्दी मत होना फिर से

इस मिलन की रात के बाद लम्बी जुदाई न हो फिर से
दिल ने ये दुआ मांगी है एक बार फिर से

बरसो से सोय दिल में आज अरमान कोई जगायेगा फिर से
इतिहास एक बार अपने आप को दोहराएगा फिर से

हितेश कुमार शर्मा

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अपने-पराये

यहाँ कौन है अपना, कौन पराया l
अब तक मैं ये समझ ना पाया ll
जिस को मैंने समझा अपनाl
उसने तोड़ा मेरा सपना ll

जिसे अपने दिल का हाल सुनाया l
उसने मेरा मज़ाक बनाया ll
समझा जिसको मैंने पराया l
उसने मेरा साथ निभाया ll

पराये यहाँ अपने बन जाते है l
अपने भी बेगाने हो जाते है ll
आईना सिर्फ हमें चेहरा दिखाता है l
किसी के मन को समझ नहीं पाता है ll

काश ! मुझे ऐसा आईना मिल जाता l
जिससे मैं उस मन को समझ पाता ll
मन की इन गहराईयों को तो जान लेता l
और अपने -परायों को तो पहचान लेता ll

फिर सोचता हु अच्छा है ………………
नहीं है ऐसा कोई आईना मेरे पास l
सिर्फ , अपने तो नज़र आते है आस -पास ll
यदि इस आईने से , मन को समझ जाता l
शायद ! अपनों से ज्यादा , परायों को पाता ll

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।।ग़ज़ल।।चाहत न होती थी ।।

।।गजल।।आदत न होती थी ।।

वजह कुछ भी रही हो पर कोई आहट न होती थी ।।
कोई गम भी नही था तब कही हुज्जत न होती थी ।।

न मंजिल थी न वादा था न तेरी रहनुमाई थी ।।
अकेला था अकेले में कोई दिक्कत न होती थी ।।

मिले हो तुम हमे जब से नजारे खुद अचंभित है ।।
किसी को देखते रहना मेरी आदत न होती थी ।।

मग़र हैरान हूँ कल से तुम्हारी इक झलक पाकर ।।
किसी के पास आने की कभी हसरत न होती थी ।।

करूगा मैं इशारा तो न तुम मौन हो जाना ।।
किसी के दिल दुखाने की कभी चाहत न होती थी ।।

………R.K.M

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ग़ुलाब

मैने पूछा ग़ुलाब से ,
कैसे तू बनी इतनी लाल?
ग़ुलाब ने हौले से मुस्का कर कहा,

“मुझे देख आशिक़,

पाते नही अपने दिल को संभाल I

उछाल देते है दिल मुझ पर,

जो मेरे ही कांटो के जाल मे उलझ कर,

हो जाते है, लहुलुहान I

और उसी के रक्त से कर मैं स्नान ,

बन गयी हू, इतनी लाल !"

-पार्थ

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गुरुवार, 23 जुलाई 2015

भ्रष्टाचार

मेरा भारत महान है !
यह जान तुझ पर क़ुर्बान है,
पेट मे रोटी नही,
नही है तन पे कपड़ा,
फिर भी हम कहेंगे,
ये देश! तू मुझ पर महरबान है ,
मेरा भारत महान है ?

ग़रीबी की यहा राज है,
क्यूंकी, भ्रष्टाचार ने पहना ताज है ,
हमारी झोपड़ी मे दीया नही,
पर देखो ! महलो मे क्या शान है !
मेरा भारत महान है ?

यहाँ हक के बदले ,
हमे मौत क्यूँ मिलती है?
क्यूँ हमारी, भाग्य की रेखाएँ ,
रोज फटती और सिलती है?
कोई हमे बताएँ ,
यह ज़िल्लत की ज़िंदगी क्यूँ ?
क्या हम इस देश के,
नाजायज़ संतान हैं ?
मेरा भारत महान है ?

भ्रष्टाचार एक श्राप है,
और धोना हमे यह पाप है ,
करेंगे विरोध इसका,
डर किसे?
करना आज हमे रक्त-स्नान है,
बोलो! मेरा भारत महान है !!

-पार्थ

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जीवन

जीवन की गठरी को
ख़ुद ही उठाना पड़ता है ,
चलता चल ये मुशाफिर
ग़म से तू क्यूँ डरता है I

जीवन है पथरीली राह
कही उच तो कही नीच है,
दुख आए या चाहे ख़ुशी
हमे जीना इसीके बीच है I

चलते हुए गर तू थक जाए
पर रुकना कभी नही ,
भले भाग्य हो बिपरीत तुम्हारा
पर झुकना कभी नही I

आख़िर जिंदगी क्या है ?
एक जंग ही तो है,
डरो नही गर छूटे सबका साथ
कर्म तुम्हारा संगि तो है I

जीवन के इस जंग को
खुद ही लड़ना परता है,
आया यहा तो, कुछ किए जा
हार से तू क्यूँ डरता है I

-पार्थ

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किसान का आत्मघाव

मैं किसान
वो मेरा सफ़ेद गमछा
कोई
मिटटी में बो गया
जीवन के अंधियारे से
काला हो गया..

हुनर तो पाया है
बीज बोने का
मैंने भी
पर घर का बीज
कोई चुरा ले गया..

उजडती फसल सी रोती बिटिया
दुबला पतला सा बेटा
सुहागन की चलती गठिया..

दिल की टीस से चलता है हल
सफ़ेद पगड़ी बनी समस्या का घर
रात दिन दिन है रात
हर समय सूखे की बात..

अन्न का दाता हूँ
किसान हूँ
देने वाला हूँ सबको
मांगने वाला मैं क्यूँ हूँ?

दर्द से चप्पल फट गई
धोती पीली हुई सदियाँ बीत गई..
हरियाली नाराज़ है ज़िन्दगी सूख गई..

किस्मत की लकीर
जैसे चलना भूल गई
कष्ट को आने में
कभी चूक नही हुई…

कबसे बैठा हूँ आस का सूरज लिए
गरम धूप भी जीवन का हिस्सा हुई
पसीने से बहती हुई मेहनत
किसी उधार की नौकर हुई..

सुरभि सप्रू

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बुधवार, 22 जुलाई 2015

।।गज़ल।। कुछ तो बहाना चाहिए।।

।।गज़ल।।कुछ तो बहाना चाहिए ।।

हद हो गयी अब तो तुम्हे मुस्कुराना चाहिए ।।
ऐ दोस्त तेरे दीदार का कुछ तो बहाना चाहिए ।।

कल परसो से इसारा कर रहा हूँ मैं तुम्हे ।।
अब तेरी भी अदा कुछ खास होनी चाहिएे ।।

मत झुका अपनी नजर तू नजर भर देखने दे ।।
उस नजर को इस नजर के पास आना चाहिए ।।

हो गया मुझको यकी न कभी तू न कहेगी ।।
हा कहने में तुम्हे भी उफ़ न कहना चाहिए ।।

आ हमारी आँख का बन जा कोई नमकीन मरहम ।।
है यकीं तुम पर तुम्हे अब मान जाना चाहिए ।।

……….R.K.M

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सूरज और ओस

सुबह जब सूरज निकलता है,
अपनी तपिश के साथ..

ओस फिर उड़ जाती है होके फनाह,
लगता है मिट जाता है वजूद उसका,
जाने वजूद मिटता है या,
सिद्दत से उड़ती है,
अपने महबूब की बाहों मे जाने को,
समझ ना सका मैं,
जाने क्या रिश्ता है,
ओस का सूरज के साथ,
कल तूने भी की थी,
बात मुझे छोड़ जाने की….आज़ाद

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