शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

उठो भारत के वीर सपूतो

उठो भारत के वीर सपूतो,
आज वतन फिर पुकार रहा !
वक़्त नहीं अब घर में सोने का
दुश्मन सीमा पर ललकार रहा !!

सदा किया है, सदा करेंगे
हम न डरे है, हम न डरेंगे
किसने इतनी हिम्मत पायी
जो माँ के शेरो को ललकार रहा !!

उठो भारत के वीर सपूतो,
आज वतन फिर पुकार रहा………………..!!

जब जब किसी ने नजर उठाई
तब तब हमने उसे जबाब दिया
देश रक्षा में अपनी जान गवाईं
उन वीरो का लहू हमे पुकार रहा !!

उठो भारत के वीर सपूतो,
आज वतन फिर पुकार रहा …………………!!

भारत माता हमे जान से प्यारी
जिसपे सदा हमे अभिमान रहा
वतन की खातिर हमे जीना मरना
इसपर जीवन अपना बलिदान रहा

उठो भारत के वीर सपूतो,
आज वतन फिर पुकार रहा …………………!!

भले अलग अलग अपनी भाषा
भले अलग अलग अपनी पोशाकें
हिन्दू, मुस्लिम या सिख, ईसाई
हर कोई एक दूजे का सगा यार रहा !!

उठो भारत के वीर सपूतो,
आज वतन फिर पुकार रहा………………… !
वक़्त नहीं अब घर में सोने का
दुश्मन सीमा पर ललकार रहा……………….!!

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डी. के. निवातियाँ _________***

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!! है कहां मेरा बिहार!!

एक खूबसूरत सा था राज्य मेरा,
जिसपर करता था देश नाज मेरा,
आज दो टुकड़ों में बटा पड़ा है,
एक पैरो पे डटा पड़ा है
देख के उसका यह बिखरा हाल
ढूंढता हु,
है कहा मेरा बिहार !!

न गंगा का निर्मल पानी,
नहीं उड़ती अब चुनर धानी,
न आती मिट्टी की खुसबू,
न बसंत बहार हवाएँ भी,!
नहीं दीखते वह खेत सुहानी,
न ढ़ेर अनाज की जैसे घानी
न बैलो का तान सुनाता,
न गाती गौराएँ भी,!!
बंद हो गई सहनाई बिस्मिलाह की,
और वीर कुँवर की भूमि बेहाल,
ढूंढता हु,
है कहा मेरा बिहार !!

नहीं होते अब वह खेल पुराने,
डंडा गुल्ली, चित्ते, फाने,
न बगीचे में शोर मचाना,
आम, महुआ और इमली खाना,
न खेतों में वह साग सुहाने,
केराव बूंट और मटर के दाने,
और ना अब वहां खेतो में जाना,
खलिहानों में धान कटाना
निकल गए हम यूँ घरों से,
छोड़ के अपनी भूमि को खस्ता हाल,
ढूंढता हु,
है कहा मेरा बिहार !!

ना रहे वो प्यारे मीठे बोल ,
जिसमे थे मिश्री जैसे घोल,
था कभी वो बना नंबर वन,
आज बसा है बस जंगल जंगल बन,
है बदनाम होती हर रोज,
किसी नई कहानी से !
लालू, नितीश, पासवान,
तो कभी माझी की वाणी से, !!
अधमरा सा पड़ा हुआ है,
होकर खुद से कही लाचार,
ढूंढता हु,
है कहा मेरा बिहार !!

अमोद ओझा (रागी)

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मुझे याद किया होगा

बेवजह नहीं हुई कोई हरकत आबोहवा में !
यक़ीनन मेरे यार ने मुझे याद किया होगा !!

बहका बहका सा लगता रुख हवा का
करवट बदल मौसम ले रहा अंगड़ाई
गुलशन कुछ इस तरह निखरा आज
जैसे मिलन से पहले गोरी सकुचाई
ऐसे तो देखी हमने कभी बहार नही
जरूर उसने लबो से मेरा नाम लिया होगा !!

बेवजह नहीं हुई कोई हरकत आबोहवा में !
यक़ीनन मेरे यार ने मुझे याद किया होगा !!

ये बादलो के घुमड़ घुमड़ के गर्जना
नभ में गरजती बिजली का चमकना
बे मौसम की बारिश का यूँ बरसना
टप टप से बूंदो का बदन पे टपकना
ऐसे तो देखी हमने कभी बयार नही
जरूर उसने लबो से मेरा नाम लिया होगा !!

बेवजह नहीं हुई कोई हरकत आबोहवा में !
यक़ीनन मेरे यार ने मुझे याद किया होगा !!

ऐसे तो बात बनती नही किसी भी हालात में
शायद होंगे वो भी हमारी तरह से जज्बात मैं
कैसे सह लेते है वो किसी से जुदाई का गम
जरूर पूछेंगे उनसे अब की बार मुलाक़ात में
ऐसे तो देखी हमने कभी दरार नही
जरूर उसने लबो से मेरा नाम लिया होगा !!

बेवजह नहीं हुई कोई हरकत आबोहवा में !
यक़ीनन मेरे यार ने मुझे याद किया होगा !!
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डी. के. निवातियाँ __________***

जिंदगी क्या हैं

जब कभी में ये सोचता हु की जिंदगी कहा है/क्या है तो में पता हु की

“जिंदगी लहरातें तिरंगे के उस सम्मान मैं है
जिसकी खातिर जाने कितने जवानो ने
हशते-हशते अपनी जिंदगी बलिदान कर दी
जिंदगी शरहदो की जमीं की उस मोहब्बत में है
जिसके लिए जवानो ने हर मोहब्बत कुर्बान कर दी”

जिंदगी ममता से भरी उस माँ की गोद में है
जहा जाते ही रोता हुआ बच्चा अचानक चुप हो जाता है,

जिंदगी पिता-जी की वो ऊँगली है जिसे पकड़ कर हमने चलना शिखा,
पिताजी के वो कंधे है जिन पे बैठ कर हम ने देखा जहाँ,

जिंदगी भाई के उस प्यार में है जो बगैर कुछ कहे हमारी परेशानियों को
समझ लेता है, और उन्हें दूर करता है,

जिंदगी बहन की उस दुवाओं से भरी राखी है
जो वो मेरी कलाई पे बांधती है,

जिंदगी दोस्तों से भरी वो क्लास है,
जिनके साथ हम खेलते है हस्ते है
लड़ते है रोतें है और फिर अलग होने पर
उन्ही यादो में अक्सर खोते है,

जिंदगी उस एक लड़की/लड़के के प्यार में है
जिसके लिए हम रातो को देर से सोते है और
सुभह जल्दी उठ के सबसे पहले उसे “गुड मॉर्निंग” कहते है,
जिसके लिए हम घंटो इन्तजार करते है
नाराज होते है और उसके (सॉरी देर हो गई)
कहने पे मुस्कुराते हुए “इटस ओके” कहते है

सच दोस्तों जिंदगी बोहत ही हसीन हैं

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बेकरारी

रात कितनी हो रही हैं
क्यों नही सो रहें हैं,
वो मुझसे पूछते हैं की
क्यों इतना रो रहें हैं,
अपने दिल की दास्तान कैसे बयां करू उन्हें,
की किसी के कितनी पास आकर
कितने दूर हो रहें हैं,

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।।गजल।।चाहत जरा होती तुम्हे तो।।

।।गजल।।चाहत जरा होती तुम्हे तो।।

जिंदगी की शौक से राहत जरा होती तुम्हे तो ।।
दिल दिखा देता अगर चाहत जरा होती तुम्हे तो ।।1।।

मिट गया होता हमारे बीच का ये फासला ।।
गर हमारे दर्द की आहट जरा होती तुम्हे तो ।।2।।

मैं चला जाता यकीनन दूर तेरे आंशिया से ।।
पास आने से मेरे छटपटाहट जरा होती तुम्हे तो ।।3।।

मन्नतो से इश्क़ में है बदल जाते मुकद्दर ।।
दिल बदलने की चाह से फुरसत जरा होती तुम्हे तो ।। 4।।

जा कभी अब न करूँगा ख्वाहिसे इजहार की ।।
आज तन्हा रह न जाते हसरत जरा होती तुम्हे तो ।। 5।।

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शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

कह दो अपनी यादों

कह दो अपनी यादों से तुम,
मुझे जलाना छोड़ दें अब,
जब तुम्हे नहीं है वास्ता कोई,
मुझे सताना छोड़ दें अब।

वो चांदनी रात है याद मुझे,
आई थी मिलने झील पे जब,
एक पल को लगा की चाँद हो तुम,
तुमसे ही रोशन लगी थी शब।

वो बातें तुम्हारी मीठी सी,
कुछ मिश्री सी कुछ इमली सी,
वो तुम्हारा हँसता चेहरा,
वो उठती गिरती साँसों का अदब।

पर अब हो नहीं तुम पास मेरे,
यादों में ही बस बसी हो तुम,
जाओ तुम हो जाओ परे मुझसे,
बस दर्द ही है तुम्हारा सबब।

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एक दबी आग

बुझती नहीं ताउम्र एक बार जो जल जाती है,
वक़्त के कदमों तले वो राख़ में छिप जाती है ।
बेचैन रहती थी जो एक झलक पाने को ,
सामना होते ही वो अंजान नज़र आती है,
पास आते ही जो गले लग के लिपट जाते थे ,
देख कर दूर से अब राह ही मुड़ जाती है,
पतंग की डोर से पहुंचाते थे जो खत मुझको,
हाल उनका ये हवाएँ भी नहीं बताती हैं,
याद आ जाऊँ मैं शायद उन्हें फुर्सत में,
सुना है उनको अब फुर्सत नहीं मिल पाती है,
बेसब्र हवाओं से कभी राख़ जो उड़ जाती है,
एक दबी आग फिर से उभर जाती है।

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।।गजल।।शाजिसे मेरे लिए भी।।

।।गजल।।शाजिसे मेरे लिए भी।।

प्यार में देखा ठहर, थी रंजिसे मेरे लिये भी ।।
गम वही,तन्हा वही,थी बंदिशे मेरे लिये भी ।।1।।

आंशुओं के भाव से बिक रहे थे दिल वहा पर ।।
हर ख़ुशी को बेचने की थी ख्वाहिसे मेरे लिये भी ।।2।।

जुर्म मेरा कुछ नही था पर सजा सब एक सी थी ।
तब हो गयी थी दर्द की फरमाइसे मेरे लिए भी ।।3।।

है वहा के लोग सब इश्क के मारे मुअक्किल ।।
लूटने की कोसिसे थी हो रही मेरे लिए भी।। 4।।

मन्नतो की वजह से बच निकल पाया वहा से ।।
बन रही थी बेमुरौवत शाजिसे मेरे लिए भी ।।5।।

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गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

।।गजल।।मौत का मार निकला।।

।।गजल।।मौत का मारा।।

हर वह शक्श जो भी बेशहारा निकला ।। ।।
कोई गम में डूबा कोई वक्त का मारा निकला ।। 1।।

वजह कुछ भी रही हो पर वफ़ा का नाम जब पूंछा ।।
कोई दर्द से बोझिल कोई वक्त का मारा निकला ।। 2।।

बात जब होने लगी प्यार की गहराइयो की ।।
याद में तन्हाइयो में हर कोई बेचारा निकला।। 3।।

अब करकने है लगा पलको पर बन एक कांटा ।।
जो दूरियों में रह कभी आँख का तारा निकला ।। 4।।

क्या करोगे तुम समझकर चाहतो की बेबसी ।।
इश्क में जो मिला मौत का मारा निकला ।।5।।

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हम किसी से कम नहीं

हमारा शोषण कर के अपना गुरूर दिखाने वाले
कहीं ऐसा न हो तेरी हसी पे लगाम हम लगा दें
अपने घमंड में मुझको इतना बर्बाद न कर
की तेरी तबाही का इल्जाम तुझी पर हम लगा दें

हमारी ख़ामोशी को बुझता अंगार न समझ
हम में वो चिंगारी है जो तेरे लोहे में आग लगा देंगे
माना इन्द्रधनुष जैसे सात रंग हैं हम में
पर सब मिल जाएँ तो तेरे दामन पे दाग लगा देंगे

छोटा सा कंकड़ ही सही हम
चाहे तो तेरी आँखों में पानी ला देंगे
हवा का हल्का झोंका न सकझ लेना हमें
हम वो तुंफा हैं जो सुनामी ला देंगे – प्रीती श्रीवास्तव

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अजब दुनिया

अजब है ये दुनिया,
यहाँ पल में ही हमने लोगो के इमान को बिकते देखा है
रिश्ते नाते की कदर किसे है,
यहाँ तो हमने दुल्हे के रूप में इंसान को बिकते देखा है
डॉक्टर है तो बीस लाख,
इंजिनियर है तो पंद्रह लाख की बोली लगती है
बड़े अफसरों के कहने क्या,
सरकारी चपरासी हो तो दस लाख की गोली लगती है
कैश टीवी फ्रिज गोदरेज कार,
मांग बहुत से होते है
इनके बिना रिश्ता नहीं,
ना जाने ऐसे रिश्ते कैसे होते है
पूर्वजों की बनाई कुछ गलत रीतियों में
ना जाने आज भी क्यों कुछ लोग रहते है,
दहेज़ को अपना हक समझने वाले,
क्या इसीलिए अपनी बेटी को धन पराई और बहु को लक्ष्मी कहते है?
– प्रीती श्रीवास्तव

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तूने इतना दिया है ईश्वर !! ( part-3)

तूने इतना दिया है ईश्वर
लौटा भी न पाऊँ में मरकर !!

शायद मुझे जवाब मिल गया है
सोच कर मेरे चेहरा खिल गया है !!
बहुत सोचने पर भी जवाब न मिला था
पर अचानक एक ही पल में ख्याल आ गया
और ऐसा लगा की जवाब-ऐ -सवाल आ गया !!
तब पता चला पल में बहुत ताकत है
पल में कुछ भी हो सकता है , हर पल में जीवन है !!
व्यर्थ न गवाऊंगा इसे
जीऊंगा हर पल , चाहे आज हो या कल !!
तूने इतना दिया है ईश्वर
लौटा भी न पाऊँ में मरकर !!

एक बच्चा जब डरता है , नींद में सहम जाता है
व्याकुल होकर पिता उसे गले लगता है !!

उसको तब तक गले से नहीं हटाता
जब तक बचा फिर से गहरी नींद में नहीं सो जाता है !!

बच्चा बेपरवाह होकर सो जाता है
अब आदत उसकी कुछ ऐसी लगी कि हर छोटी -छोटी बात पर पिता याद आता है
कर लूँगा बड़े से बड़ा काम ऐसा साहस जताता है !!

सच मानो तो कुछ परिस्थि मेरी भी ऐसी है
हालत मेरी बच्चे जैसी है !!

जब डरता हूँ , फंसता हूँ कहीं
हे पिता -ईश्वर तुझे ही याद करता हूँ !!
तू हर बार मुझे गोद में लेता है और चैन की नींद सुलाता है !!

नहीं चाहता तू मुझसे बदले में कुछ
बस देना और करना जानता है !!

पिता है तो मेरा और मुझसे सिर्फ प्यार करना जानता है !!

तूने इतना दिया है ईश्वर
लौटा भी न पाऊँ में मरकर !!

धन्यवाद !!!

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तूने इतना दिया है ईश्वर -Part 2

तूने इतना दिया है ईश्वर
लौटा भी न पाऊँ में मरकर !!

में मुझमें बहुत सी कमियां देखता हूँ ,
हर बदलते मौसम की नर्मियाँ -गर्मियां देखता हूँ !!
तू कैसा एक सा सदैव है ,
जानता हूँ मैं मानव तू देव है !!
पर इतनी गलतियां कोई कैसे माफ़ कर सकता है ,
जिसमे है इतनी शक्तियाँ की पल में दुनिया साफ़ कर सकता है !!
तू इतना बलशाली है फिर भी शांत है
मैं इतना खाली हूँ और अशांत हूँ !!

तूने इतना दिया है ईश्वर
लौटा भी न पाऊँ में मरकर !!

कभी सोचता हूँ क्यों तुझे मुझसे इतना प्यार है
ऐसा क्या करता हूँ मैं , जिसके लिए इतना दुलार है !!
नियमित रूप से तुझे हाथ भी नहीं जोड़ पाता हूँ
चलते भागते तेरा दिया भोजन खाता हूँ !!
शरीर की तो दुर्गति ही समझो
नश्वर है यह मान के बैठा हूँ
आगुन्तक का है यह , वही संभाले इसे , यह ठाने बैठा हूँ !!

जो मन में आये करता हूँ
जो मूह में आये कहता हूँ !!

तूने इतना दिया है ईश्वर
लौटा भी न पाऊँ में मरकर !!

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बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

।।गजल।।आदमी।।

।।गजल।।आदमी ।।

पास आकर मंजिलो पर ढह गया हर आदमी ।।
जिंदगी को खोजता ही रह गया हर आदमी ।।1।।

शौक तो सबको रही दिल में बसाने के लिए ।।
पर प्यार के ही खौफ से अब डर गया हर आदमी ।। 2।।

जब चला तो भीड़ थी काफिले में वह चला था ।।
लौट कर आया अकेला रह गया हर आदमी ।। 3।।

तब सजा मिलने लगी बेगुनाहो को यहा ।।
जब दिलो की शौक से भर गया हर आदमी ।।4।।

खुदगर्जी की वजह से जब रूह तक बिकने लगी ।।
तब आंशुओं की बूँद सा ढह गया हर आदमी।।5।।

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अच्छा लगता है (व्यंग)

अच्छा लगता है

दुनिया में सबके शौक निराले
जाने किसको क्या अच्छा लगता है
केश कटाकर नारी रहती,
पुरुषो को बाल बढ़ाना अच्छा लगता है !!

अजीब ही खयालात बनाते है लोग
सबको एक दूसरे का जीवन अच्छा लगता है
झोपडी वाले देखे ख़्वाब रोज़ महलो के
महल वालो को झोपडी में रहना अच्छा लगता है !!

जिसे जो मिला उससे संतुष्टि कहा
जो नही मिला उसे पाना अच्छा लगता है
गरीब पीता मज़बूरी में बिन दूध की चाय
अमीरो को शौक में ऐसा करना अच्छा लगता है !!

जमाने का दस्तूर ही कुछ ऐसा है
विपरीत कार्य करना सबको अच्छा लगता है
कुछ लोग रहते मज़बूरी में वस्त्रहीन
किसी को फैशन में अर्धनग्न दिखना अच्छा लगता है !!

कहने को तो बहुत कुछ दुनिया में
पर कुछ तथ्यों को दोहराना चाहूंगा, जैसे
!
बॉस को कर्मचारो को धमकाना
टीचर का बच्चो को डाट लगाना
बच्चो को शोर मचाना ,
बेसुरो को गाना गाना
दूल्हे को अधिकार ज़माना
पत्नी को पति पर गुस्सा दिखाना अच्छा लगता है !!

पंडित को बड़ा तिलक लगाना
मुल्ला को लम्बी दाढ़ी बढ़ाना
सरदार को पगड़ी में रहना
पादरी को पाठ पढ़ना बड़ा अच्छा लगता है !!

हिन्दू को मंदिर में घंटा बजाना
मुस्लिम को जोर जोर से अजान लगाना
ईसाई को बाइबिल का उपदेश देना
सिक्खो को सेवा धर्म निभाना बड़ा अच्छा लगता है !!

युवको को बेवजह जोश दिखाना
युवतियों का सुंदरता में होड़ लगाना
पिता का बच्चो को बात-२ पर समझाना
मम्मी का डाँटकर प्यार जताना बड़ा अच्छा लगता है !!

फूलो में गुलाब, नशे में शराब,
कार्यक्रम में ताली , घर में साली
आभूषण में सोना, दुःख में रोना
प्यार में गमजदा, यार में हम सखा सबको अच्छा लगता है
!
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डी. के. निवातियाँ _________!!!

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मन की उड़ान

‘मन की उड़ान’
चल के देख जरा सा,
सागर की गहराई की और,
सोच,निचे भी तो जिंदगी है,
है प्राण वहाँ भी,चाहे जीवों के लिए ही सही,
जिंदगी तो है,साँस है पानी में भी,
खो गई है रौशनी,
उन अंधेरो के साथ,
जो छाया से बने थे,
वो भी काले बादलों की ओट लिए,
मद मदन है,
उन्मुख की और,सजा है पर किस ओर,
ढूंढ ले और चल भलाई की ओर,
क्या पता जग जाये वो मुसाफिर,
जो कभी चला था क्षितिज की ओर,
मिल जायेगा तुझे भी साथी,
डूबी हुई नाव का मांझी,लिए तुझे साहिल के ओर,
मत देख आगे क्या है,
और मौसम का मिजाज कैसा है,
हुआ वक़्त अपना तो चला आएगा,
क्षितिज भी एक दिन खिंचा अपनी ओर,
टूट जाएगी हवा की जकड़न,
जो लिए थी तुझे आलस की ओर,
मत सोच के तू क्या था,
तू था,बस ये ही सोच,
चल पड़ा है एक नई उमंग लिए,
बजने लगी सांसे तरंग लिए साहिल की ओर,
बस मिलेगी ख़ुशी,
तू ढूंढेगा जिस ओर,
कुमुद खिलेंगे,
रंग-बिरंगी सुगंध लिए,
पंछी चहकेंगे बिन सवेर,
उडान भी होगी बिन पंख,
गुलाम भी हो जाएगी हवा भी,
लिए तुझे ऊंचाई की ओर,
तू है आज बारिश में पतंग,
पर मत समझना के छू पायेगी तुझे बूँद भी,
होंसला रखना बस उड़ते चले जाने का,
उडान होगी सफलता की ओर,
जीवन है जी लेने के लिए,
खुशियो के अरमानो के सौगात की ओर !

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तूने इतना दिया है ईश्वर !! ( part-1)

॥ धन्यवाद है ईश्वर ॥

तूने इतना दिया है ईश्वर
लौटा भी न पाऊ मैं मर कर ॥
नादाँ सा बच्चा था मैं जब
नहीं मालूम था ईश्वर कौन है ,
कहाँ रहता है, किसे क्या कहता है
की रुके काम बन जाते है
बंद दरवाज़े खुल जाते है॥
सोच जहाँ थक जाती है
वहां तेरी याद आती है ॥
आँख बंद कर लेता हूँ
और मन से मैं यह कहता हूँ

तूने इतना दिया है ईश्वर
लौटा भी न पाऊ मैं मर कर ॥

तू इतना बड़ा है की
देकर भूल जाता है,
पर मैं इतना छोटा हूँ की
लेकर भूल जाता हूँ ॥
पर फिर भी तू मुज़े अपनाता है
गले लगता है
रोउँ तो आसु सोक लेता है ॥
तूने इतना दिया है ईश्वर
लौटा भी न पाऊ मैं मर कर ॥

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छपी हुई किताबें

कौशलेंद्र प्रपन्न
पुस्तकें होती ही हैं पाठकों के लिए। और लेखक भी पाठकों के लिए ही लिखता है। यह अलग बात है कि आज जिस रफ्तार से किताबंे लिखी और छापी जा रही हैं उसका एक उद्देश्य ख़ास पुरस्कार, सम्मान पाना भी प्रकारांतर से लेखकीय मनसा होता है। मनसा तो यह भी होता है कि किस तरह अपनी किताब का प्रमोशन करूं कि ज्यादा से ज्यादा प्रतियां बिकें और अखबारों में उसकी समीक्षा की झड़ी लग जाए। लेकिन लेखक भूल जाता है कि किताबें अपनी कंटेंट और शिल्प की वजह से ख़्याति हासिल करता है न कि हथकंड़े अपनाने से। हथकंड़ों से कुछ प्रतियां तो लाइब्रेरी में खरीदवाई जा सकती हैं, लेकिन वह पाठकों के पहंुच से दूर ही होती हैं। महज विश्व पुस्तक मेले में बहुतायत मात्रा में पुस्तकों के लोकार्पण का भी मामला नहीं है बल्कि हर पुस्तक मेले में इस तरह की कवायदें हुआ करती हैं। लेकिन इस हकीकत से भी मुंह नहीं फेर सकते कि जिस रफ्तार से किताबों का लोकार्पण पुस्तक मेले में हुआ करते हैं वे उसी तेजी के साथ काल के गाल में भी समा जाती हैं।
कोई भी किताब अपनी गुणवत्ता और कंटेट के बदौलत वर्षांे वर्षों तक पढ़ी और पुनव्र्याख्यायित होती रही हैं। ईदगाह, उसने कहा था, दो बैलों की कथा, सूखा, चित्रलेखा, स्मृति की रेखाएं, चीफ की दावत, दोपहर का भोजन, जिंदगी और जांेक आदि हमारे सामने उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत हैं। इनके लेखकों ने तथाकथित कोई चलताउ प्रयास अपनी रचना को लेकर नहीं की। बल्कि उनकी रचना खुद अपनी पठनीयता की पैरवी करती हैं। लेखक के प्रयास किताब की कथानक के आगे कम पड़ जाती हैं। लेखक का वास्ता महज लिखने तक होता है। लिख लिए जाने के बाद किताब पर हक और दावेदारी लेखक से ज्यादा पाठक-समाज की हो जाती है। पाठक – और प्रबुद्ध समाज उस लिखे हुए शब्द-विचार समाज को ही सच्चाई मान कर चलता है। लेखक लिख लिए जाने के बाद दूसरी किताब पर काम शुरू कर देता है। निर्मल वर्मा के साथ इन पंक्तियों के लेखक ने सरस्वती सम्मान मिलने पर बातचीत की थी तो उन्होंने कहा था कि लेखक के तौर पर मुझे जो कहना था वह मैंने अपनी किताबों में लिख चुका हूं। एक बार पुस्तक लिख लेने के बाद मैं अपनी अगली किताब की परिकल्पना में जुट जाता हूं। एक लेखक के तौर पर क्योंकि पूर्व किताब में उसे जो और जितना कहना था वह कह चुका। अब उसके हाथ से वह किताब निकल चुकी। हां यह अलग विमर्श का मुद्दा हो सकता है कि लेखक अपनी पूर्व स्थापनाओं को पुनर्परिभाषित करना चाहता है तब वह पूरक किताब लिखता है।
आज लेखन भी बाजार का हिस्सा बन चुका है। जो जितना और जिस गंभीरता के साथ बाजार के अर्थशास्त्र को समझते हुए लेखन करता है उसकी लिखी किताब उसी अनुपात में लेखक को अर्थ एवं ख्याति को लौटाता है। यहां बाजार को ध्यान में रखकर लेखन का अर्थ यह है कि पाठक जिस तरह के लेखन को पढ़ना चाहता है लेखक उसी तरह का लेखन करता है। ऐसे लेखक अब हिन्दी में भी तेजी से बढ़ रहे हैं। ऐसे लेखकों को बाजार भी हाथों हाथ लेती है। ऐसे लेखन का मूल्यांकन होना अभी शेष है। जब इतिहास ऐसे लेखन का मूल्यांकन करेगा तब पता चलेगा कि अमुक लेखक की कृति कितना सार्थक है व समय के प्रवाह में लिखी गई तात्कालिक रचना है।
कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य आदि ऐसी खुली जगह और संभावनाएं हैं जिस क्षेत्र में अमूूमन लेखक हाथ आजमाता है। कविता की भूमि इस दृष्टि से ज्यादा उर्वरा है। इस क्षेत्र में लेखनी तेजी से चल रही है। जैसा कि कहा जा चुका है कि रचना किस स्तर की है और उसकी प्रासंगिकता कितनी है इसका विश्लेषण करने पर ही मालूम चल सकता है। लेकिन एक प्रवृत्ति व जल्दबाजी देखी जाती है कि किसी भी पुस्तक मेले में जब कोई पुस्तक लोकार्पित होती है मंचासीन लेखक, अतिथि, वक्ता बड़ी ही विकल होकर किताब और लेखक की तुलना या तो पूर्व के बड़े लेखकों से कर लेखक को खुश करने की कोशिश करते हैं या फिर पहली ही किताब पर लानत मलानत देने लग जाते हैं। निराशा, कुंठा, अकेलापन आदि भावदशाओं के दबावों में लिखने से बचने के टोटके और मंत्र भी बतलाने से नहीं हिचकते। पहली बात तो यही कि फलां ने लिखने की कोशिश तो की। उसकी इस कोशिश की सराहना करने की बजाए उसके उत्साह पर मट्ठा डालना उचित नहीं है। आज की तारीख में लेखक के पास छपने और प्रकाशन के कई सारे विकल्प उपलब्ध हैं। एक ओर लेखक या तो अपनी जेब से खर्च कर 10,000 से 15,000 में किताब छपा लेता है और उसका लोकार्पण खर्च भी वहन करता है। इस तरह से उसकी किताब और लेखन तो रोशनी में आ गई। लेकिन अपनी लिखी हुई संपदा पर ठहर कर सोचना का वक्त नहीं मिल पाता। ऐसी किताबें अमूमन परिचितों, स्वजनों को उपहार देने की काम आया करती हैं।
एक स्थिति तो स्पष्ट है कि लेखक को जैसे ही प्रकाशन के विकल्प सोशल मीडिया एवं अन्य प्रकाशक का मिला प्रकाशन जगत के एकछत्र राज्य से मुक्ति महसूस किया। क्योंकि जैसे ही प्रकाशन का विकेंद्रीकरण हुआ एक लाभ तो यह हुआ ही कि छोटे-मोटे प्रकाशकों की दुकानें भी चल पड़ीं। लेखकों को भी छपने की संभावनाएं खुलीं। एक अलग बात है कि बड़े प्रकाशकों की संपादकीय टीम की लंबी लाईन से मुक्ति तो मिली। लेकिन इसका असर किताबों की गुणवत्ता पर दिखायी देने लगा। ऐसी ऐसी किताबें कविता, कहानी, आलोचना व उपन्यास की भी छपने लगीं जिन्हें देख,पढ़कर लगता है कि यह विधा के साथ न्याय नहीं हुआ।
लिखना अपने आप में एक श्रमसाध्य कर्म है। इसके साथ ही लिखना एक गंभीर चुनौती भी है। हमारे समाज और समय में जो भी लेखन कर रहे हैं और जिन्हें गंभीर माना जाता है वो छपवाने से ज्यादा लेखन पर ध्यान देते हैं। यूं तो माना जाता है कि यदि कोई चीज लिखी जा रही है तो वह छपे भी ताकि पाठकों तक लेखन पहुंचे। जो लिखेगा वो छपेगा। जो छपेगा वो लिखेगा इससे किसे गुरेज हो सकता है कि लिखा वही जाए जिसकी पाठनीयता हो और लिखे हुए शब्द की सार्थकता एंव लेखन बयां करे।
लिखने के लिए लेखक के पास खुला आसमान है। वह कागज पर लिखे और छपवाए या आभासीय मंच पर लिखे। लिखना ज्यादा महत्वपूर्ण है। आज हजारों हजार गेगा बाइट में रोज दिन लिखे हुए शब्द प्रकाशित और प्रसारत हो रही हैं। पाठकों के सामने मुश्किल घड़ी यह है कि कौन सी चीज पढ़े और किसी न पढ़े। देखा जो यह भी गया है कि लेखक अपने क्षेत्र के अलावा दूसरी चीजें नहीं पढ़ते। उसपर तुर्रा यह वजह बताई जाती हैं कि पढ़ने का वक्त नहीं मिलता व आज कल बहुत स्तरहीन लेखन हो रहा है। यदि थोड़ा पीेछे जाएं और पुराने लेखकों की बातचीत पर गौर करें तो वे लोग जितना ध्यान लिखने पर दिया करते थे उतना ही ध्यान पढ़ने पर भी देते थे। अपने क्षेत्र और विधा में क्या चीजें लिखी जा रही हैं यदि इसका इल्म नहीं है तो उसकी आलोचना और दशा-दिशा की जानकारी नहीं मिल पाती।

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मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

शिलान्यास

निकल कर कोख से वो आसमान नापता है,
अभिमान की खुमारी में वो देखो कैसे हांकता है,
चलने वाले भी बहुत हैं उसके पीछे पीछे,
दिखा कर दर्द खुशियों के वो सपने बांटता है ,
दाग लगते ही नहीं उसका श्वेत लिबास है,
मिलता है झुक कर,वाणी में मिठास है ,
देती हैं गालियां ,टूटी सड़कें ,नालियां ,
शिलान्यास का पत्थर ही इनका विकास है….

अनिल कुमार सिंह

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अनमोल वरदान

दुनिया में बेटी जैसा अनमोल वरदान नही,
पाना हो या देना इससे बड़ा कोई दान नही ,
मिलती है ये दौलत सबको अपने-२ नसीब से,
इसका क्या लेना देना किसी अमीर -गरीब से,
तन, मन से अपना जीवन अर्पण करती,
फिर भी अपने लिए जीवन को तरसती,
बिन नारी के कोई दुनिया को देख पाता नही,
सबको मालूम मगर ये किसी की भाती नही,
वजूद से इसके पाया हर कोई पहचान अपनी,
जाने फिर क्यों दुनिया इसकी दुश्मन बनी,
बेटियो से बनते माँ, बहन,से रिश्ते जिंदगी में,
अलग- 2 रूप लिए शामिल सबकी जिंदगी में,
फिर पाती क्यों ये बराबर का सम्मान नही,
जाने क्यों मिलती इन्हे अपनी पहचान नही ,
मत भूलो दुनिया वालो बिन बेटी संसार नही
करो प्रण,कन्या अत्याचार अब बर्दास्त नही
दुनिया में बेटी जैसा अनमोल वरदान नही !
पाना हो या देना इससे बड़ा कोई दान नही !!
!
!
!
!
डी. के निवतियाँ_______@@@

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Motivation

क्यों रे मन तू हार रहा है।
जीवन अभी पुकार रहा है।
कितने व्यथित हुए हो खुद से।
खुद ने खुद को भार कहा है।
नरक नहीं मिल सकता तुझको।
स्वर्ग कहा से पाओगे।
ऐसी चाल रही गर खुद की।
खुद ही तुम मिट जाओगे।
देखो जग में दौड़ रहे सब।
पाने को कुछ छोड़ रहे सब।
क्यों तू ऐसे पड़ा हुआ है।
बिन भावों के भरा हुआ है।
उठा जरा इन पलकों को।
देख जरा इन हलको को।
रुके नहीं है कदम जरा भी।
चलते जाये सदा सदा ही।
मन में एक विश्वास जगओ।
पाने की कुछ प्यास बढ़ाओ।
समझो जीवन पुण्य पिटारा।
कभी ना मानो खुद को हरा।
बन अर्जुन तुम वाण चढ़ाओ।
आँख दिखेगी ध्यान लगाओ।
विश्व विजेता बन जाओगे।
गर खुद में खुद को पा पाओगे।

सुनील कुमार

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।।शेर।। दिल नही बचता।।

न जाने क्यों लोग दरियादिली की बात करते है ।
न दरिया ही बचता है न दिल ही बचता है ।।

जिस दिन हिसाब होगा तेरे गुनाहो का देख लेना ।।
कई बेगुनाह सजा पायेगे तेरी गवाही से ।। 2।।

मेरी मत सोच अब लापरवाह हो गया हूँ मैं ।।
फ़िक्र अपनी कर कही तक़लीफ न हो तुमको ।। 3।।

सिर्फ मैं ही नही टूटूगा तुझ पर भी असर होगा ।।
जीने नही देगा तुझे ये कहर अफवाहों का ।। 4।।

कोई मरता नही किसी की वेवफाई से दोस्त ।।
पर जिंदगी ही गवा देता हैं किसी को भुला पाने में ।।5।।

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Read Complete Poem/Kavya Here ।।शेर।। दिल नही बचता।।

सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

क्रन्दित कान्ता

रात घनी थी ,अँधेरे में घुली सी थी
कांता बेचारी घर से चली थी
काम जरूरी था टालने में मुस्किल बड़ी थी
जाने कहा से कमबख्त हवस के शिकारी आ गए
कांता को उठाकर जंगल में ले गए
वो चीखती रही चिल्लाती रही
मदद के लिए आवाज लगाती रही
दहल उठा था जंगल सारा
कांता ने मदद के लिए बहुत पुकारा
रस्ते से लोग यूं ही गुजरते रहे
वो वहशी दरिंदे उसके दामन को छलनी करते रहे
कांता इस घटना सहमी सी थी
उन दैत्यों में मानवता की कमी सी थी
कुकर्म का तांडव करके वो , कांता को वही छोड़ गए
कांता का मानवता से भरोसा तोड़ गए
जख्म जिस्म के भर जायेंगे दिल के जख्म भरेगा कौन
तब भी चुप थे ,क्या अब भी लोग रहेंगे मौन
तोड़ चुप्पी को आओ एक प्रण करे
कोई कांता फिर ऐसे न मरे !!!!!!!!!!!!!!!!!!!

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अन्धेरा

रोशनी से घिरा -मैं
अन्धेरे में बैठा रहा!
देखता मैं रहा
लाखों तारे रहे जगमगा –
झिलमिल करते रहे –
चाहते थे -ना तम हो घना!
उन की लौ से सजा
नभ स्याही संजोए रहा!

रोशनी से घिरा -मैं
अन्धेरे में बैठा रहा –
देखता मैं रहा
एक इन्द्रधनुष था खिंचा
लिए आशा की किरण
सात रंगों से वह था सिंचा
रंगों से सजा -घन
घनघोर होता गया!

रोशनी से घिरा -मैं
अन्धेरे में बैठा रहा!
तारे हंसते रहे –
रंग संवरते रहे –
दीप जलते रहे –
पर मिटा ना सके
क्यूंकि तम था घना!

रोशनी से घिरा -मैं
अन्धेरे में बैठा रहा!

——बिमल
(बिमला ढिल्लन)

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प्रेम

प्रेम त्याग है , प्रेम तपस्या
प्रेम है जीवन का आधार l
प्रेम से कोई काम करो तो
हो जायेगा वो साकार ll

प्रेम बिना सब सुना-सुना
प्यार कहीं , न रह पायेगा l
बिन प्यार के इस जीवन में
जीना दुर्भर हो जायेगा ll

प्रेम बिना ये रिश्तों की डोरी
बांध नहीं , अपनों को पाएंगी
ईर्ष्या और घर्णा की भावना
चारो तरफ छा जाएँगी ll

प्रेम वो जादू की झप्पी है
पराये भी अपने बन जाते है l
जीवन के इस चक्र को पूरा
करने में साथ निभाते है ll

बिन प्रेम के ईश्वर भी इस
दुनिया की रचना न कर पाते l
आज अगर ये दुनिया न होती तो
हम ये कविता कैसे लिख पाते ?

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इलाही मुझ पर तु बस इतना करम कर दे !

इलाही मुझ पर तु बस इतना करम कर दे !
जागी हैं तडप दिल में उसे तु खबर कर दे !!
हो गर इनायत उसकी मुझ पर तो अच्‍छा हैं !
नहीं तो मुझे तु मुझसे बेखबर कर दे !!

अविनाश कुमार

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बहुत कुछ सिखाया हैं आशिकी ने !

बहुत कुछ सिखाया हैं आशिकी ने!
नींद और सकून उडाया हैं आशिकी ने!!
ये पूछों क्‍या क्‍या भूले आशिकी में!
तुृझे छोड सब कुछ भुलाया हैं आशिकी ने!!
अविनाश कुमार

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ज़िन्दगी की कहानी

ज़िन्दगी की कहानी, कुछ ऐसी थी हमारी,
जो पलट कर देखा, बीते दिन के पन्नो को,
अश्क़ो के सैलाब में, अलफ़ाज़ भी सिसकते मिले!

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रविवार, 22 फ़रवरी 2015

जब से पहली बरसात बरसी

जब से पहली बरसात बरसी
तुम से मिलने को मै हर बार तरसी
याद तुम्ही आये इस दिल को
और सपनो की बौछार बरसी

जब से पहली बरसात बरसी

ख्वाब सजाये तुम्हारे
चलोगे एक दिन संग हमारे
दिल को सपनो से मनाया
और अकेले ही हर बार तरसी

जब से पहली बरसात बरसी

बारिश की बूंदो को छु कर
तुमको महसूस किया
और तेरे अनगिनत प्यार में
डुबो के संसार तरसी

जब से पहली बरसात बरसी

तेरे आने के इंतज़ार में
ज़िन्दगी गुज़र रही है
राह तकती कब से मेरी
आँखों की ये श्वेत बद्री

जब से पहली बरसात बरसी
जब से पहली बरसात बरसी

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बद-दुआ

क्यों करें फ़िक्र इस ज़माने की
इसको आदत है बस रुलाने की…
पत्थरों के जो फूल होते तो
क्या महक होती आशियाने की …
वो मेरा था जो अब मेरा न रहा
कोशिशें ख़त्म हुयी मनाने की ….
रात के साथ अँधेरे जवान होते हैं
ये घड़ी जुगनुओं के आने की…
याद के जुगनुओं को रोक तो ले
कोशिशें कर उन्हें भुलाने की….
आंसुओं से नहीं वो पिघलेंगे
उनको आदत है भूल जाने की….
छोड़ दामन जो मुझसे दूर गए
क्या जरूरत है मुस्कराने की ….
दोस्ती दोस्तों से हार गयी
दुश्मनी साथ है निभाने की …
उम्र भर साथ हम रहेंगे सदा
झूठी कसमें थी बस दिखाने की….
तुझको तुझसे मिले वफाओं में
और लगे बददुआ ज़माने की ….

anil kumar singh

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।।गजल।।कातिल तुझे समझा।।

।।गजल।। कातिल तुझे समझा।।

उम्र भर जिंदगी का शाहिल तुझे समझा ।।
शुक्र कर की दोस्त के काबिल तुझे समझा ।। 1।।

थे और भी बेबक तबायफ मुस्कराने को ।।
दर्द औरो का था पर दिल तुझे समझा ।। 2।।

पर तोड़ दी तुमने ही देकर प्यार की खुशबू ।।
ना कि इस दिल ने बोझिल तुझे समझा ।।3।।

लोग करते तय रहे यू जिंदगी का रास्ते ।।।
छोड़कर हर रास्ता मंजिल तुझे समझा ।।4।।

जा किसी दिन याद आये तो न रोना तुम ।।
न कहूगा मैं कभी कातिल तुझे समझा ।। 5।।

!!!!!!!

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बहुत कुछ देखा है

इस छोटी साइ जिन्दगी मे बहुत कुछ बदलते देखा है,
खुशीमे रोते हुए लोगों को देखा है
दूसरों की खुशी को देख दुखी होते लोगों को देखा है
थोडे से लालच के लिये ईमान बेचते लोगों को देखा है
मा की ममता को लाचार होते हुए देखा है
इंसानियत को शर्मसार होते हुए देखा है
दोस्ती की मिठास मे पनपती ईर्ष्या को देख है
यद्यपि नही हुआ धरा पर समय मुझे ज्यादा
किंतु प्रकृति को कहर बरपाते देखा है
एक इंसान का दूसरे इंसान से भरोसा टूटते हुए देखा है
मानता हूँ मै बदलाव नियम है प्रकृति का
किंतु यहाँ तो प्रकृति को बदलते इंसानो को देखा है
आखिर कब खत्म होगा ये सिलसिला बदलने का,
इस आशा मि बदलते संसार को देखा है .
शुभम चमोला
schamola50@gmail.com

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२३/०४/१९९५
आ लहू के घूँट दो नीचे उतारें हम हलक से।
और फिर कुछ सभ्य होकर भीड़ में खो जायें यारों।
है जमाने की यही अब माँग हँसकर आदमी से।
आदमी बनने से पहले जानवर हो जायें यारों।
आपने माना कि लड़ना नीचता का काम है पर।
जग हँसाई से बचें तो नीच हम हो जायें यारों।
वक्त का हर आईना धुँधला पड़ा है आजकल तो।
टूटना ही है तो क्यों ना आईना हो जायें यारों।
चाल कोई भी न चलती दण्ड का आदेश प्रभु दे।
इसलिये बस सिर झुकाकर हैं जहाँ रुक जायें यारों।
23/04/1995
aa lahoo ke ghoo~MT do nIce utaareM ham halak se|
aur phir kuC sabhy hokar bhIDx meM kho jaayeM yaaroM|
hai jamaane kI yahI ab maa~Mg ha~Msakar aadamI se|
aadamI banane se pahale jaanavar ho jaayeM yaaroM|
aapane maanaa ki laDxanaa nIcataa kaa kaam hai par|
jag ha~MsaaI se baceM to nIc ham ho jaayeM yaaroM|
vakt kaa har aaInaa dhu~Mdhalaa paDxaa hai aajakal to|
TooTanaa hI hai to kyoM naa aaInaa ho jaayeM yaaroM|
caal koI bhI na calatI daND kaa aadesh prabhu de|
isaliye bas sir jhukaakar haiM jahaa~M ruk jaayeM yaaroM|

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शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

"नारी की अंतर-वृथा"

मैं नारी अपनी वृथा, कहती हूँ अपनी कथा |
समाज के झंझालों से, अपमान के उन गलियारों से,
हर पल मुझको आना-जाना है, स्वाभिमान को बचाना है ||
जीवन के दो पाटों में, क्यूँ मुझको पिस जाना है |
नारी होना दोष मेरा, यही पुरुष ने माना है ||

—- कवि कौशिक

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मूक दर्शक

कोई मस्ताना कहता है,
कोई परवाना कहता है।
मेरे दिल की गहराई में झांको,
तेरा चेहरा झलकता है।

तू मुझसे चली गयी,
मेरे दिल को अखरता है।
तू मुझसे दूर है लेकिन,
दिल के करीब लगती है।

मैं तेरे प्यार में पागल,
तू मेरे प्यार की दीवानी।
ये तेरा दिल समझता है,
या मेरा दिल समझता है।

इस दुनिया को तेरा मेरा,
रिश्ता बेमाना लगता है।
हमारे रिश्ते की पवित्रता को,
केवल खुदा समझता है।

ये दुनिया वाले लोग हैं,
केवल वही चार लोग।
जिनका नाम ले ले कर,
रिश्तेदार उलाहना देते हैं।
कि तुमने किया गलत कुछ भी,
बोल बोल कर हमारी जान ले लेंगे।

ना बोले पलट कर कुछ भी,
तब भी यही प्रक्रिया होगी।
नहीं तो भरी महफ़िल में,
द्रोपदी सी चीर हरण होगी।

इन सबसे बचना है तो,
बुलंद अपनी आवाज करो।
नहीं तो मूक दर्शक से,
तालियाँ बजाओ तुम।

निशान्त पन्त “निशु”

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सपने तोड़ चले

एक रिश्ते ने दिल तोड़ा तो जग को ही तुम छोड़ चले।
बूढ़ी आँखों के सपने क्यों एक पल में तुम तोड़ चले।

हाथों में जो बंधा प्रेम से बस रेशम का धागा समझा।
पहले से ही सोए थे तुम क्यों खुद को जागा समझा।

कायर थे तुम क्यों साहस का झूठा चोला ओढ़ चले।
खुद के लिए ही जिन्दा थे जो अपनों से मुँह मोड़ चले।

क्यों मान गए हारा खुद को,रब ने क्या है नीति लिखी।
जीवन है शतरंज की विशात,किस बाजी पे जीत लिखी।

जो मिला नहीं, न तेरा था फिर करने किससे होड़ चले।
जाना था किस ओर मुसाफिर,किस ओर तुम दौड़ चले।

एक रिश्ते ने दिल तोड़ा तो जग को ही तुम छोड़ चले।
बूढ़ी आँखों के सपने क्यों एक पल में तुम तोड़ चले।

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।।गजल।।इंतजार न था।।

।।गजल।।इंतजार न था।।

प्यार की शौक न थी गम का इंतजार न था ।।
हर किसी को देखा पर क़िसी को प्यार न था ।। 1।।

हर शक्श दूरियों में था बेबसी का मारा ।।।
जबकि उसे तो खुद पर ही एतबार न था ।। 2।।

हर फूल खुशनुमा था बस उम्र भर ही यारो ।।
फिर तो ख़ुशी का उनके कोई आशार न था।। 3।।

हर तरफ बेवफाई हर और बेरुखी थी ।।
हर दिल पड़ा था खाली कोई दिलदार न था ।।

लाख कोशिशे की पर हार कर मैं आया।। दिल एक ही था मेरा पर कोई तैयार न था ।।5।।

××××

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Read Complete Poem/Kavya Here ।।गजल।।इंतजार न था।।

!! प्रेम गीत !!

हमे तुमसे प्रीत कितनी अब कैसे तुम्हे बताऊँ !
लब खोलू मोहे आवत लाज कैसे तुम्हे जताऊं !!

तुझ पे मैंने वार दिया अपना जीवन सारा
मुझ में अब मै नहीं सब कुछ अपना वारा
देख हालत मेरी अब जोगन कहे जग सारा
कोई जतन काम न आये कैसे तुझको पाऊँ————(१)

हमे तुमसे प्रीत कितनी अब कैसे तुम्हे बताऊँ !
लब खोलू मोहे आवत लाज कैसे तुम्हे जताऊं !!

विरह आग में जिया जले, नैनो से बरसे नीर
दुनियावाले ताने कसते, लफ्ज बने अब तीर
कब समझोगे मेरी हालत कुछतो करो विचार
दीदार को तरसते नैना मै कैसे नयन मिलाऊँ ………..(२)

हमे तुमसे प्रीत कितनी अब कैसे तुम्हे बताऊँ !
लब खोलू मोहे आवत लाज कैसे तुम्हे जताऊं !!

हरपल लगता बरसो बीते जैसे तेरे इन्तजार में
कब आकर सुध लोगे प्रभु कब से बैठी द्वार पे
सुन लो गिरधर,मेरे विष्णु,अब तुम हो मेरे राम
मन की भाषा तुम न समझे कैसे तुम्हे समझाऊँ——(३)

हमे तुमसे प्रीत कितनी अब कैसे तुम्हे बताऊँ !
लब खोलू मोहे आवत लाज कैसे तुम्हे जताऊं !!
!
!
!

डी. के. निवातियाँ ___________@@@

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मुक्तक

यारो की महफिल मे जब दोरे जाम होगा
शेरो शाय्ररी का चलन जब आम होगा
मेरा हर लफ्ज बन जायेगी गजल
होटो पे मेरे जो तेरा नाम होगा

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ज़ख़्मी मैं और तूँ

मुझमें “मैँ” ढूंढ रही हूँ मैँ अगर
तो तुझ में तू भी कहाँ अब बाकी रहा होगा
यकीं है मुझको सारा जहान है तेरे पास
मगर कोई हमसा भी नहीं मिला होगा

जला डाली तस्वीरें सारी उसने जला डाले ख़त मेरे
गुज़रे थे साथ -साथ जिनसे उन रास्तों का उसने
क्या किया होगा????

सुना है आज कल कहता है बहुत सकूं में हूँ मैँ
मगर याद नहीं उसको कितनों को उसने बेसकूं
किया होगा

किसी ने कहा अब वो पहले सा नही रहा
मैने कहा कोई बड़ी बात नही, रुख हवाओँ ने ज़रा बदला तो वो भी बदल गया होगा

खबर है अब तो घर की दीवारेँ भी ऊँची करली उसने
हो न हो उसकी बेटी ने कदम जवानी में रखा होगा

मुझमें “मैं” ढूंढ रही हूँ मैं अगर
तुझमे तू भी कहा अब बाकी रहा होगा……..
नवप्रीत

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मेरी चाहत

bs itni si chahat h meri
kuj mera hal sunne ki
kuj teri sunne ki
teri baato me hi khoye rhne ki
bs itni si chahat h meri..
kaash ye lmha yhi thahr jaye
mere dil me utha tufaan tham jaye
teri aankho me dube rhne ki
bs itni si chahat h meri..
vese to m tujse kbi mila ni
pr lgta h saalo se janta hu tuje
kuj baate v teri buri lgi h muje
fir agle hi pl tuj pr pyar aaya h
na jaane kesa khumar chaya h
tujse ase hi jude rhne ki
bs inni si chaht h meri…
jb bhi tujse baate krta hu
sb kuch bhool jata hu
bs inhi lmho me hi
Jee bhr kr jeena chahta hu
tuje sochkr khud ko bhulne ki
bs itni si chahat h meri…
tuje sirf chahne k alawa
kuch or ni chaha mene tujse
bs ik baar bol de ki han
kuch to ahmiyat rkhta hu
m v teri zingdgi me
tere hr dard ko apnane ki
bs itni si chahat h meri…

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Meri chahat

bs itni si chaht h meri
kuj mera hal sunne ki
kuj teri sunne ki
kaash ye lmha yhi thahr jaye
mere dil me utha tufaan tham jaye
teri aankho me dube rhne ki
bs itni si chaht h meri
vese to m tujse kbi mila ni
pr lgta h saalo se janta hu tuje
kuj baate v teri buri lgi h muje
fir agle hi pl tuj pr pyar aaya h
na jaane kesa khumar chaya h
tujse ase hi jude rhne ki
bs inni si chaht h meri
jb bhi tujse baate krta hu
sb kuch bhool jata hu
bs in plo me hi
khul kr jeena chahta hu
tuje sirf chahne k alawa
kuch or ni chaha mene tujse
bs ik baar bol de ki han
kuch to ahmiyat rkhta hu
m v teri zingdgi me
tera ik acha dost bnne ki
bs itni si chaht h meri

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शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

Meri chahat

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इस गुमनाम भीड़ मे हर शक्स गुमनाम होता चल गया,

इस गुमनाम भीड़ मे हर शक्स गुमनाम होता चल गया,
अकेले रह गये तन्हा किसी उम्मीद मे,
इस उम्मीद मे वक्त चलता चला गया।
मिले कई शक्स कई मोड पर ऐसे,लगा कि
ज़िंदगी मे कुछ अपना सा मिल गया,
हर शक्स अपना कुछ वक्त गुजार कर कुछ अपना
सा बना कर चला गया।
आये कई मोड ज़िंदगी मे ऐसे लगा कि किस काम
की ये ऐसी ज़िंदगी,
पर मिला कोई शक्स ऐसा जो जिन्दगी क कुछ मतलब बता कर चला गया।
हर रोज नया सा मिला कोई ऐसा जो अंजानी सी बातोंसे रूबरु करा कर चला गया,
ये सिलसिला कब थमेगा,यही सोच कर दिल उदास बैठा
फिर आया कोई शक्सऔर फ़िर से ये उम्मीद लगाबैठा,
अकेला सा तन्हा इस भीड़ मे एक चेहरा उदास बैठा
मिल जाये कोई सच्चा हमसफर इस ख्वाइश मे एक नयी उम्मीद लगा बैठा।
shubham chamola
dehradun
9897286105
Schamola@ymail.com

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shradhanjali to Mr.late rajesh khanna

आनंद का ये आखिरी सफ़र कुछ यूँ कट गया
की आराधना में उनकी हर शीश झुक गया
माना रंगमंच की वो कठपुतली दुनिया से आज हो गई है अलग-अलग
मगर प्रेम उनका सबके दिलो में रहेगा हमेशा अमर
अगर तुम न होते ,आपकी अदाए न होती
कोरा कागज बन के रह जाता ये फ़िल्म जगत
जिंदगी को आखिरी ख़त लिखने वाले ऐ बहारौ के आशिक
स्वर्ग के दो रास्तो में ही गिरेगी तेरी कटी पतंग
न दुश्मन है कोई, न जीवन में कोई दाग
हर बाबु मोशाए को है आपसे अनुराग
आखिर क्यूँ न हो आपकी ख़ामोशी का गम
ऐ छला बाबु….न भूलेंगे कभी आपको आप की कसम
अनुरोध है मेरा न बहाओ आंसू उनके nears एंड dears
क्यूंकि काका कहते थे i hate tears …..

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यादें

यादें रह जाती हैं,
कभी जगमग तो कभी मद्धम
कुछ चेहरे अधूरे से,
क्यों दिन रात पीछा करते हैं
ओस में भीगे हुए,
सोच कर चलते नही
राह में कभी मिलते नही
खोजते रहते हैं,
दोनो ही उम्र भर
राख में लिपटी हुई,
अस्तित्व की वो उलझनें
शायद कभी मिल जाए,
यूँ ही सलवटों के दरमियाँ
और

सपनो में मिले तो क्या मिले
आईने में तो कभी देखा नही…..

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बेटियाँ

फूलों से बातें करे कौन
अगर रंग बिरंगी तितलियाँ
ना हों
चहके महके चूड़ी पायल
टप टप नाचे कौन
अगर घरों में बेटियाँ
ना हों

रौनक आबाद है इन्ही से हर
आँगन की
यह ना हों तो फिर घरों में
बरकतें न हों

घर आये शाम को लौट के बाप
तो लिपट जाये गले से बेटी
फिर कैसे दूर ज़माने की
थकन ना हो

बेटी सी नेहमत है तेरे पास
खुदा का शुक्र अदा कर
देखेगा जो सूनी गोद किसी माँ की
तो शायद तुझे कभी बेटे की
हसरतें ना हों

हिसाब मांगेगी ना कभी
तेरी कमाई का बेटी ,आज़मा लेना
बेटा बेटा नहीं रहता
अगर तेरे पास बाँटनें को ज़मीनें
ना हों

मुहबतें दुआएँ तहज़ीब झोली में डाल कर
रुखसत कर देना बस दो कपड़ों में
अगर उसको देने के लिए तेरे पास
कुछ ज़्यादा ना हो

फूलों से बातें करे कौन
अगर रंग बिरंगी तितलियाँ
न हों………….
नवप्रीत

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गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

अल्हड़ मेरी जीवन-शैली
हे शिव देखो ज्ञान मेरा,
मुफ्त नहीं मैं माँग रहा हूँ
कब दोगे वरदान मेरा?
धूप,दीपकी ज्योति जला दी
वायु में घ्रत घोल भंडार,
आम लकड़ियां चंदन लकड़ी
शुद्धि पंड़ित मंत्र उचार,
कहो नासिका-तंत्र रखेगा
आजीवन कब मान मेरा?
मुफ्त नहीं मैं—–॥
वस्त्रदान के लिए किया था
कब मैंने यह हवन विशाल?
श्रीहरि के भोग मिलावट
तुलसी पत्तों की टकसाल,
रखे गले की क्रियाओं को
क्या यह संतुष्ट दान मेरा?
मुफ्त नहीं मैं—-॥
होगी वायु शुद्ध नासिका
शुद्ध रसोई का रसपान,
रोगों के उन दुष्ट कीटाणु
को डस लेगा हवन-प्रमाण,
विद्वानों की नीति विभूषित
नतमस्तक अभिमान मेरा,
मुफ्त नहीं मैं—-॥
जाति-पांति अरु द्वेषरहित
ना यह छूत-अछूत करे,
संग शुद्धि के रहें संचालित
विद्वान ब्राह्मण ब्रह्म करें,
लग जाएगा ठीक निशाने
बोलो कब संधान मेरा?
मुफ्त नहीं मैं—-॥

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"अरविन्द विश्वास"

“अरविन्द विश्वास”

दिल्ली की कठिन इन राहों पर,
कोई मफलर तान के निकला है |

कहने को तो है विशेष, पर कहलाता है आम
मफलर मैन-धरना कुमार , ना जाने कितने उसके नाम |
छोटा सा कद में, है दुबला
गंगा सी नियत रखता है ||

दिल्ली की कठिन इन राहों पर,
कोई मफलर तान के निकला है |

ना छप्पन(56) इंच की छाती है
ना ओबामा से पहचान |
फिर भी दिल्ली की इन गलियो में
वो निकला है सीना तान ||

दिल्ली की कठिन इन राहों पर,
कोई मफलर तान के निकला है |

संग है उसके कुछ संगी साथी
और ध्रीढ सा विश्वास |
राजनीती हो सकती ऐसी भी
जगाया उसी ने आस ||

दिल्ली की कठिन इन राहों पर,
कोई मफलर तान के निकला है |

अब पाया है उसने बहुमत
कंधे पर बहोत है भार |
फिर भी साथी है आशा ऐसी
कर दिखायेगा अबकी बार |
विकास,बिजली, पानी और सुरक्षा ना जाने कितने है सवाल? |
फिर भी दिल को ये तो सब्र है, की है अपना अरविन्द केजरीवाल ||

by roshan soni

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