गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

गर ये मजबूरी ना होती by Alok upadhyay

गर ये मजबूरी ना होती

महलों में होते
गर ये मजबूरी ना होती
इन झोपड़ियों में ना रहते
चूसते खून आवाम का
हर रोज़ पेट भरकर
ईमानदारी का जामा पहन
किसी को कुछ ना कहते
माना की ये जमीं का टुकड़ा
हमारा नहीं
लोगों ने खरीदा है कानून तक
क्या ये नाइंसाफी की ओर
इशारा नहीं
साहब
कभी महलों की दिवारों पर
तो बुलडोजर चलाओ
कभी नेताओं, भ्रष्टाचारियों के
की भी लाईन में लगाओ
हमें नहीं है मखमल पे सोने
की आदत
अलाव के पास ही रात
कट जायेगी
कभी अमीरों को भी निकालो
घरों से बाहर ठंड में
आपकी सियासी कुर्सी
तक हिल जायेगी
साहब!..!
हम पर बीती है रात भर
तो हर किसी को
अपना दुखड़ा सुनायेंगे
पता है बदनसीब हैं हम
ये सारे नेता
हमारी जलती आत्मा पर
राजनिति की रोटी सेक
चले जायेंगे
किसी गरीब को आँसुओं
में बहते हुए देखना
दिल फट जायेगा तुम्हारा
कभी अपने मकां को ढहते
हुए देखना
हम तो ऐसे ही जिते आये
आसमाँ के नीचे पका लेंगे अपनी रोटी
महलों में होते
गर ये मजबूरी ना होती
by
ALOK UPADHYAY

Alok upadhyay poet

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कन्या : a reality poem by ALOK UPADHYAY

जो कन्या ना होती तो माता न बनती
हमारी कोई जन्म दाता न बनती
न भाईदूज हमको मिठाई खिलाती
कौन रक्छा बंधन मे कलाई सजाती
नेग के लिए कौन रूठती मचलती
सगुन के पलो मे न सजती सभलती
वहन दर्द का आह फिर कैसे बुनती
जे मौसम कभी भी न आता बसंती
जो कन्या न होती तो माता न बनती
हमारी कोई जन्म दाता न बनती……………1
बुआ जी बहुत तुमने चाहा है हमको
छुड़ाया हमी से दुख दर्द को गमों को
हरेक चीज बाजार से हमको लाई
टोफी गुलाव जामुन हलुआ मिठाई
पढ़ना सिखाया लिखना सिखाया
सिखाए पहाड़े सिखाई है गिनती
जो कन्या ना होती तो मॉता न बनती
हमारी…………………………………………2
हमे कौन पालती खिलाती पिलाती
लोरी सुनाती पलना हिलाती
जो हम रूठ जाते तो हमको मनाती
मौसी कहॉ कैसे चलना सिखाती
हमारे लिए करती ईश्वर से बिनती
जो कन्या न होती तो मॉता न बनती
हमारी …………………………………..3
पल्लो हिलाती है गर्मी मे सजनी
सुवह साझ प्यारी लगे हमको रजनी
मधुरता का उपहास मत करना यारो
कन्या जन्मने से पहले न मारो
अगर भ्रूण हत्या यूं होती रहेगी
धरा पाप का भार कैसे सहेगी
भूकम्प आवेगे ओले गिरेगे
धरे अन्न मे लोग भूखे मरेगे
बे मौसम बरषात बे मौसम आधी
रोके से रुक न सकेगी बरवादी
यह प्रकृति नही दंड लेकर के हनती
जब हनती बाते न दुनिया की सुनती
जो कन्या न होती तो माता न बनती
हमारी…………………………………………4
-Alok upadhyay

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नये साल की खुशिया.......

मिटाकर अपने संस्कारो को
ये कैसा नया चिराग जलाने चले है !
लुटाकर बेशकीमती क्षण,
नये साल की खुशिया मनाने चले है !!

भूलकर गए अपने नववर्ष को
पाश्चात्य संस्कृति अपनाने लगे है !
याद नही है हिन्दू वर्षगाठ
अंग्रेजी स्टाइल में न्यू इयर मनाने चले है !!

घर में बाट जोहते माँ बाप
बच्चे रात में पार्टिया मनाने चले है !
बीबी बच्चे घर में कर रहे इंतज़ार
साहब दारु के पैग लगाके नाले मिले है !!

कैसे अजीब शौक चर्राये
देखो आज मेरे देश के युवाओ को
मिटा कर अपनी जिंदगी
जश्न में खुशिया मनाने चले है !!

क्या सीखा बीते वर्ष से
इसका किसी को कोई भान नही
बिना कोई योजन बनाये
आने वाले पल का स्वागत करें चले है !!

कर शपथ, ले कुछ सीख
बीते कल को बनाकर हथियार
रख भविष्य की नीव,
जीवन की नैया तब कही पार लगे है !!

होता है कितना अन्याय,
कितना अत्याचार, कितनी इज़्ज़त लुटे है
नये साल की खुशियो के नाम
देश में चरस गांजे का व्यापार जो चले है !!

क्या होगा झूठी खुशिया से
जब तक इंसानियत हर दिल न जगे है
खुशियो का असली आनंद तब है
देश का हर बच्चा, बच्ची फूल बनकर खिले है !!
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–०–डी. के. निवातियाँ –०–

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नव वर्ष की बधाई ...

हिंदी साहित्य परिवार के सभी कविगणों को
डी. के. निवातियाँ एंव परिवार की और हार्दिक बधाई !!

वर्तमान को परिवर्तित करे भूतकाल में
बीते हुए लम्हों को अब हम देते विदाई
भविष्य का हर पल रहे खुशियो से भरा
ऐसी मंगल कामनाओ संग हार्दिक बधाई !!

पल, दिन, महीने, साल गुजरते जाते है
कभी सोचा क्या की हमने इनमे कमाई
अच्छा किया, बुरा किया, जो भी किया
अब क्या हो सकेगी उसकी फिर भरपाई !!

अब तक जो हुआ, सो हुआ भूल जाना
आने वाला पल न हो हमसे कोई बुराई
प्रेम, सौहार्द, सद्भावना का हो विकास
भविष्य में करेंगे कार्य जिसमे हो भलाई !!

नए वर्ष के शुभागमन से हो उल्लास
सबके घरो में खुशिया की बहार छाई
हाथ जोड़कर ईश्वर से करते प्रार्थना
सबके हिस्से में हो बस खुशिया आई !!

जाते जाते ये वर्ष पुराना कह रहा है
छोड़कर जा रहा हूँ कुछ कोरे कागज़
नव रंग जीवन के तुम इनमे भरना
करना ऐसे कर्म, जग में हो तेरी वाहवाई !!

वर्तमान को परिवर्तित करे भूतकाल में
बीते हुए लम्हों को अब हम देते विदाई
भविष्य का हर पल रहे खुशियो से भरा
ऐसी मंगल कामनाओ संग हार्दिक बधाई !!
!
!
!

–::०::— डी. के. निवातियाँ –::०::—

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माना की लोग जीते हैं हर पल खुशी के साथ - GAZAL SALIM RAZA REWA

GAZAL !!
माना की लोग जीते हैं हर पल खुशी के साथ 
शामिल है जिंदगी में मगर ग़म सभी के साथ !

आएगा मुश्किलों में भी जीने का  फ़न  तुझे 
कूछ दिन गुज़ार ले तू मेरी मुफ़लिसी के साथ !

नाज़ो अदा के साथ कभी  शोखिओं के साथ 
दिल में उतर  गया वो बड़ी सादगी के साथ !

ख़ूने  जिगर  निचोड़  के रखते हैं  शेर  में 
मुझको बहुत है प्यार मेरी शायरी के साथ !

आसानियां   रहीं   कभी   दुश्वारियां   रहीं 
मौसम के पेंचो ख़म भी रहे ज़िंदगी  के साथ !

उसपे  ना  एतबार   कभी  कीजिए  ” रज़ा ” 
धोका किया है जिसने हर एक आदमी के साथ !

shayar salim raza rewa

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यह कैसी कहानी है ?

यह कैसी कहानी है ?
यह कैसी कहानी है ?

राजा है न रानी है ,
उतरे हुए चेहरे हैं ,
क्यूँ धुप्प अँधेरे हैं ,
बिजली है न पानी है।

यह कैसी कहानी है ?
यह कैसी कहानी है ?

सहमा हुआ है बचपन ,
सूनसान बुढ़ापा है,
और टेन्स्ड जवानी है।

यह कैसी कहानी है ?
यह कैसी कहानी है ?

खोता हुआ अपनापन ,
है आँखों में सूनापन ,
सुनी सुनी आँखों में ,
न आग न पानी है।

यह कैसी कहानी है ?
यह कैसी कहानी है ?

सुखी क्यों ममता है,
माँ की नहीं समता है ,
भीगी हुई इक माँ की ,
क्यों कर्कश वाणी है ,
उसके भी आँचल में ,
न दूध न पानी है।

यह कैसी कहानी है ?
यह कैसी कहानी है ?

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यह कैसा प्रेमजाल।कविता।

कविता। यह कैसा प्रेम जाल ?

यह कैसा प्रेमजाल ?
खिली मधुर मुस्कान
स्मृतियां,मन,गाते तन-गान
आह्लादित है प्रसून वह चेहरा
अरे! भावनाओं की ओट
शिकारी बना शिकार
पगडण्डी के उस पार

झूठे प्रलोभन झूठा अनुमान
प्रेमी खेलता खेल
भावनाओं से मेल,बेमेल
सहनशीलता की अवनत आँखे
तकटकिओ की धार ,बौछार
होने लगा देह व्यापार
पगडण्डी के उस पार

चलो गाये प्रेम गीत
भरे दर्द में दुःख की आहें
कंटकांकुरित दूर जटिल है राहें
सहता कौन ? पवित्रता मौन
विचलित डिगा ईमान मान,सम्मान
फिर हुआ कुकृत्य ,संहार
पगडण्डी के उस पार

@राम केश मिश्र

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फिर नया साल।कविता ।

कविता।फिर नया साल ।

फिर नया साल
पल्लवित होंगी झूठी आशाएँ
सस्ती शुभकामनायें
कुछ आधी-अधूरी यादें
कुछ दूर हुए है रिस्ते
धूमिल होता वो प्यार
पगडण्डी के उस पार

भरोशा किसका?
बदल गयी प्रथाएँ
हृदय व्यथा उपजाये
सम्बन्धों में इठलाती दूरी
अब दुःखों की होगी अदला-बदली
वो नये नये उपहार
पगडण्डी के उस पार

चलो खरीदें आंसू
हृदय हुआ जा रहा बंजर
फिर नही मिलेगा अवसर
अंकुरित करनी होगी भावनाएं
इंद्रधनुषी कुछ रूप सलोने
फिर लौटायेंगे उपहार
पगडण्डी के उस पार

@राम केश मिश्र

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बुधवार, 30 दिसंबर 2015

मुक्तक। कर्म,हौसला,कल्पना, के प्रति।

मुक्तक।कर्म,हौसला,कल्पना के प्रति।

कर्म से जीवन सभी का है तरा तुम देख लेना ।।
हौंसलो की उड़ानों को जरा तुम देख लेना ।।
रास्तों के ही बिना जो कल्पनाओं में बढ़ें हैं ।।
मिल नही पाती हक़ीक़त की धरा तुम देख लेना ।।

@ राम केश मिश्र

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पगडण्डी के उस पार।कविता।

कविता।पगडण्डी के उस पार।
पूस की रात

पूस की रात
निशा भरे खर्राटे
बनकर पहरेदार सुने सन्नाटे
कुहरे धुंध की आहट धीरे-धीरे
झुरमुट से चलती कछुआ चाल
हाड़ कपाती ठण्ड कुटिल व्यवहार
पगडण्डी के उस पार ।।

झोपड़ी में सोता वृद्ध
ठिठुरा अलाव,ठण्ड ; तो कैसे?
जर्जर कम्बल जैसे तैसे
टुकुर-टुकुर करती वे आँखे
देख थरथराती वो खाट
फिर से चलने लगी बयार
पगडण्डी के उस पार ।।

सिहरें तन,तन रोम, देखता व्योम
अलसायी रात बदलती करवट
कुहरा हुआ जवान अभी तो तिरसठ
सुन मुर्गे की बाग़ डरा सन्नाटा
कुहरे संग धुंध ,कुहासा ,ओले
छोड़ते निरीहता पर प्रहार
पगडण्डी के उस पार ।।

@राम केश मिश्र

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सुमुखी सवैया

मात्राभार=7जभान+12
121 121 121 121 121 121 121 12 ..

सुमुखी सवैया

अबोध नवावत शीश धरे पद वन्दन भाव सहायक हो ।
अशेष विशेष करुं कवि कर्म पुनीत सुभाव विनायक हो ।
अज्ञान शरोवर हंश तरे उर भाव सदा गुण गायक हो।
कलेश हरो उर ‘राम’रचे जनमानस को फलदायक हो ।

@राम केश मिश्र

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मोतियों की तरह जगमगाते रहो - GAZAL SALIM RAZA REWA

GAZAL !
मोतियों की तरह जगमगाते रहो 
बुल बुलों की तरह चहचहाते रहो !

जब तलक आसमां में सितारें रहें 
ज़िंदगी भर सदा मुस्कुराते  रहो !

इन फ़िज़ाओं में मस्ती सी छा जाएगी 
अपनी ज़ुल्फ़ों की ख़ुश्बू  उड़ाते रहो !

हम भी तो आपके जां निसारों में हैं 
क़िस्सा- ए- दिल हमें भी सुनाते रहो !

देखना रौशनी कम न होवे कहीं  
इन चराग़ों की लौ को बढ़ाते रहो !

इतनी खुशियां मिले ज़िंदगी में तुम्हे 
दोनों हांथों से  सबको  लुटाते  रहे !

रंगे गुल रुख़ पे हरदम नुमाया रहे 
जब निगाहें मिले मुस्कुराते रहो !

212 212 212 212
shayar salimraza rewa
9981728122

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🍁 दिले हसरत 🍁

🍁 दिले हसरत 🍁
दिले हसरत मेरी ख्वाबो में,
बया कर लेने दे!
दो घड़ी ही सही दामन तेरा,
छू लेने दे!
मुद्दतो से नही महेकी,
मेरे प्यार कि बगीया,
आज उसे खुल के गमक लेने दे!
खयालो में ही नजर आता रहा,
चेहरा तेरा अब उसी चेहरे को,
तरास लेने दे!
हरेक शहर की गलियो में,
तलसता रहा तुझे “कमल “,
भर के आगोश में जरा रो लेने दे!

📝 लेखक
राजपुत कमलेश “कमल”

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कौन अंगारो से बचकर के निकल जाता है GAZAL SALIM RAZA REWA

ग़ज़ल
कौन अंगारो से बचकर के निकल जाता है
हांथ शोलो पे जो रखता है वो जल जाता है

ज़िन्दगी में वो बहुत आगे निकल जाता है
वक़्त के सांचे में इंसान जो ढल जाता है

खुद की नाकामी को किस्मत का लिखा मत कहिए
कोशिशो से तो मुक़द्दर भी बदल जाता है

मै मनाऊँ तो उसे कैसे मनाऊ या रब
मेरा महबूब तो बच्चो सा मचल जाता है

जब उठा लेती है मां हाँथ दुआ की ख़ातिर
मेरे रस्ते से तो तूफ़ान भी ट ल जाता है

कौन सी बात पे इतराये हुए बैठे हैं
शाम होते ही ये सूरज भी तो ढल जाता है

ऐसे लोगो पे ”रजा” कैसे भरोसा करलें
करके वादा जो हमेशा ही बदल जाता है

9981728122

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सिर्फ सच है तेरा प्यार,,,,,,

सिर्फ सच है तेरा प्यार,
तू भी झूठा है और
अफ़साने भी झूठे है,
सिर्फ सच है तेरा प्यार
हुआ है कब लफ़्ज़ों में मुमकिन
रूहों का इज़हार ,,,,,,,,
सिर्फ सच है तेरा प्यार ।

दिल मेरा
सुन लेता है सब,
बोल न पाते
जो तेरे लब,
तेरे दिल से
मेरे दिल तक जुड़े है तार,बेतार ,,,,,,
सिर्फ सच है तेरा प्यार ।

झूठे नहीं है
नज़रों में सपने
अक्स हैं एक -दूजे
में अपने,
सपनों की जमीं पर अपने
रचते सारा संसार ,,,,,
सिर्फ सच है तेरा प्यार ।

नहीं शिकायत
तुझसे कोई ,
नहीं बनावट
मुझमें कोई,
तू जिस रंग में
रंगे मुझको
उन रंगो से मुझको प्यार,,,,,
सिर्फ सच है तेरा प्यार ।

तेरा साथ मेरी जीस्त
का हासिल,
तू मुझमें
मैं तुझमें शामिल
कसमें -वादों से
बढ़कर है
तेरा – मेरा इकरार ,,,,,,,
सिर्फ सच है तेरा प्यार ।

सीमा “अपराजिता “

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AISA KYU PATA NAHI

JAB BHI MAI USKE BAAR ME SOCHTA HU
MUSKURAHAT AAJATI
AISA KYU PATA NHI..
JABHI USSE DEKHTA HU TOH DIL MAI KUCH KUCH HOTA
AISA KYU PATA NHI…..
SAPNO DEKHTA HU TOH WOHI NAZAR AATI HAI
AISA KYU PATA NHI……
AAJ KAL TOH ZINDAGI KO JYAADA HI JEENE LAGA HU
AISA KYU PATA NHI…….
LEKIN HAA ITNA ZAROOR PATA HAI KI
JIS DIN USSE KHO DUNGA…
USS DIN AÀKHO MAI AASO TOH HOGYE
USS BHI KAI JYADA ZINDAGI BHAR AFSOS HOG
ITNA SAB HONE KE BAAD ITNA TOH PATA HAI KI WOH MUJHSE MOHABBAT KARE YA NAA KARE
MAY USSE Be Intehaan KARTA
LEKIN AISA KYU PATA NHI……..

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मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

तन्हाई

तन्हाइ– जब भी आसमान मे तारे चमकते है तो तेरी याद आति है ।
जब कोइ मीठी सी गीत सुनाता है तो तेरी याद आती है ।
बचपन का वह पढ़ना, बात -बात पे यू लड़ना ,
रात मे साया देखके तेरा यु डरना , हर वह बात दिलाता है मूझे याद,
के तू हमेसा से है हरपल मेरे साथ, तास्बिर बनके ही सही , जानता हू तू है ही नही।
पर जाहा भी तू है मेरे बातो पर है न यकी।
देख मै कितना हो गया हू बूढ़ा , पर अब भी याद है थोड़ा-थोड़ा ,
तूने मागीं थी मुझसे एक चुटकी सिदूरं पर में तब तुझे दे न पाया।
गुस्से से तूने मेरा हाथ छुराया, नदी मे डूब जाने का बहाना बनाया,
पर मै था इतना ही नकारा की समझ नसका तेरा इसारा ,
खेल-खेल मे ही तूने छीन ली मुझसे मेरा सहारा।
देख आज मै हू एकदम अकेला , तेरी यादो ने ही मुझे साम्हाला।
इतंज़ार कर रहा हू की उस पल का कब बुलाए ऊपरवाला।
लेकर जाउगां सिदूर हाथ मे मेरा इतंज़ार करना , यहॉ न सही
स्वर्ग मे ही सही विवाह हमे तो है करना।

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KAHA MILEGI MERI MANZIL

MERI MANZIL MUJHE KA KUCH PATA NAHI
FIR BHI GHUMTA HU USKI TALAASH MEIN
SOCHTA HU AUR KHUD SE HI PUCHTA LETA HU KI….
AURR…..KEHETA HU
KAHA MILEGI YE MERI MANZIL 2.MANZIL KOI MAKSAD NHI HAI WOH SIRF MERI MOHHABBAT,MERA JUNOON,MERA PYAAR HAI….
FIRRR BHI YE PUCH LETA HU KHUD SE
KAHA MILEGI MERI MANZIL
3.YE SAFAR ITNA LAMBHA KI HAR INSAAN KO BHI APNI MANZIL KA PATA NHI
SAB KHETE HAI MUJHE SE KI AAJ TAK BHAGWAAN KO BHI MANZIL NHI MILI TOH TUJHE KYA MILEGI
FIRRR BHI YE PUCH LETA HU KHUD SE
KAHA MILEGI MERI MANZIL
4.APNI KAVITA TOH YAHA KHATAM KRTA HU LEKIN MERI MANZIL KI TALAASH HUMESHA JAARI REHAGI
FIRRR BHI YE PUCH LETA HU KHUD SE
KAHA MILEGI MERI MANZIL…….

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तन्हाई

तन्हाइ– जब भी आसमान मे तारे चमकते है तो तेरी याद आति है ।
जब कोइ मीठी सी गीत सुनाता है तो तेरी याद आती है ।
बचपन का वह पढ़ना, बात -बात पे यू लड़ना ,
रात मे साया देखके तेरा यु डरना , हर वह बात दिलाता है मूझे याद,
के तू हमेसा से है हरपल मेरे साथ, तास्बिर बनके ही सही , जानता हू तू है ही नही।
पर जाहा भी तू है मेरे बातो पर है न यकी।
देख मै कितना हो गया हू बूढ़ा , पर अब भी याद है थोड़ा-थोड़ा ,
तूने मागीं थी मुझसे एक चुटकी सिदूरं पर में तब तुझे दे न पाया।
गुस्से से तूने मेरा हाथ छुराया, नदी मे डूब जाने का बहाना बनाया,
पर मै था इतना ही नकारा की समझ नसका तेरा इसारा ,
खेल-खेल मे ही तूने छीन ली मुझसे मेरा सहारा।
देख आज मै हू एकदम अकेला , तेरी यादो ने ही मुझे साम्हाला।
इतंज़ार कर रहा हू की उस पल का कब बुलाए ऊपरवाला।
लेकर जाउगां सिदूर हाथ मे मेरा इतंज़ार करना , यहॉ न सही
स्वर्ग मे ही सही विवाह हमे तो है करना।

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वो मजबूत धागा ढूँढता हूँ मैं

रोज देखता हूँ चाँद को पिघलते थोड़ा थोड़ा
लम्बी रातों के बाद धूप की वो बूँदें बटोरता हूँ मैं

उस रात सर्दियों में पटाखे छुटे थे कई निराले
उन अंगारों में बचे फूल की माला पिरोता हूँ मैं

प्यार की गर्मी कम न हो समय की बौछार से कहीं
ठिठुरती रातों में आंहों की चादर बुनता हूँ मैं

रिश्तों के गिलाफ को बींध देती है खामोशियां भी अक्सर
नफरत को जो बांधे प्यार से वो मजबूत धागा ढूँढता हूँ मैं

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अल्लाह करम कीजिये सरकार के सदके 

अल्लाह करम कीजिये सरकार के सदके 
महबूबे खुदा अहमदे मुख़्तार के सदके !

ये चाँद सितारे ये ज़मी फूल ये  खुशबू 
जो कुछ भी है वो सब मेरे सरकार के सदके !

अल्लाह ने   कुरआन दिया मेरे नबी को 
आयी नमाज़ सैयदे अबरार के सदके  !

रौशन था एक नूर हर इक चीज से पहले 
दूनियां ये बनी नबियों के सरदार के सदके !

है उनके ही हांथो में दो आलम की हुकूमत 
अल्लाह मिलेगा नबी के प्यार के सदके !

किस्मत से जो ख्वाबों में नज़र आये पयंबर 
तक़दीर  संवर जायेगी दीदार के सदक़े !  

दोज़ख में हमेशा न रहेगा ” रज़ा ” कोई 
उम्मत को  ख़ुदा बख्शेगा सरकार के सदके !

salim raza rewa 9981728122

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हाइकू।वक्त की चाल।

हाइकू।उगता चाँद ।

लड़कपन
कल्पना का भविष्य
उगता चाँद

निशा बावरी
रचती प्रतिबिम्ब
चाँद सितारे

देखे अबोध
भविष्य का दर्पण
किलकारियां

हर्षित मन
पकड़ता चांदनी
चाँद के साथ

चन्दा मामा भी
बनते सेंटाक्लॉज
लाते खुशियां

@राम केश मिश्र

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वर्ण पिरामिड।वक्त की चाल।

पिरामिड। वक्त की चाल

है
रिश्ता
शरीर
संवाहक
और प्राण का
जन अधिकार
सृष्टि का उपहार

ये
नाँव
शरीर
भौतिकता
सागर मध्य
नाविक है कर्म
निश्चित दूरी धर्म

तो
कल
जीवन
ढलेगा ही
वक्त की चाल
कर्त्तव्यों के प्रति
रहो दृढ़ संचेत

@राम केश मिश्र

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कविता।भूखा मानव करे अलाप।

भूखा मानव करे अलाप

भूखा मानव करे अलाप
वह भूख नही पर आज
भोजन बना समाज
धन ,वैभव की होड़ ,गठजोड़
सम्बन्धों में घात
छद्मवेश में दहता रहता
पगडण्डी के उस पार ।।

मानवता के अंकुरण
भौतिकता में दबी सभ्यता
प्रगति की नव्यता
काट रह है फसल दुःखों की
भरा हृदय भण्डार
कुचल गयी सज्जनता
पगडण्डी के उस पार ।।

अहंकार के वृक्ष फले है लोभ
अधपकी कलुषता पकती कैसे
शाखाएं तो मन में;झुकती कैसे ?
कुछ एक डालियां टूटी
फूटते नये अंकुरण
भुखमरी के हुए शिकार
पगडण्डी के उस पार ।।

@राम केश मिश्र

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पिरामिड ।ठण्ड के प्रति।

वर्ण पिरामिड। ठण्ड के प्रति।

ये
सर्द
हवाएँ
कंपकपी
कंक शरीर
ले ठण्डी सी आह
कल ही मरा गरीब

दो
दिन
के बाद
फिर कैसे ?
क्यों खिली धूप?
विजयी सूरज
या पराजित मृत्य

@राम केश मिश्र

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वर्ण पिरामिड क्या है ?

वर्ण पिरामिड क्या है?

वर्ण पिरामिड हिंदी साहित्य में एक नया छंद विधान है ।इसके जनक ‘सुरेश पाल वर्मा ‘जसाला’ जी है ।
यह हाइकू विधा की तरह विषम चरणों वाला एक वर्णिक छंद है । इस छंद में सात चरण है ।इसके प्रथम चरण में एक वर्ण ,दूसरे में दो वर्ण ,तीसरे में तीन…….क्रमशः सातवे में साथ वर्ण होते है । जबकि आधे वर्ण नही गिने जाते है । किन्ही दो पदों में तुकांत आने पर रचना सुंदर बन जाती हैं ।

इस विधा में कम शब्दों ही पूरा भाव कहना होता है।अर्थात ‘गागर में सागर’
जैसे–
पिरामिड।देव वन्दना।

1-

हे
देव
दयालु
दयाकर
सद्भावना
भर दे क्लेश में
स्नेह फैले देश में

2-

दे
ईश
प्रेरणा
प्रगाढ़ता
भक्ति प्रवाह
सम्बन्धो में आह
विवेक को सन्मार्ग

3-

दो
ज्ञान
अज्ञान
मिटाकर
समभावना
समृद्धि सत्कर्म
पल्लवित हो धर्म

4-

तू
प्राण
प्रेरित
प्रखरता
उदीप्त दीप
भर हृदय में
निलय का शीप

5-

हूँ
भृत्य
सेवक
अनुचर
हो दया वृष्टि
स्नेह भर मात्र
निर्मम कृपापात्र

@राम केश मिश्र
सुल्तानपुर यू .पी
varnpiramid.blogspot.com

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🌺 याद तुम्हारी आती है 🌺

🌺 याद तुम्हारी आती है 🌺
हो जाता है मन फिर उदास,
जब याद तुम्हारी आती है!
हो जाता निशा के साथ-साथ,
निन्दिया आँखों से जाती है!!
नयन कपोलो को मीचु तो,
तू ही तू दिख जाती है!
तब कलम आपही लिखने लगती,
कुछ शब्द कोष बुन जाती है!!
तेरे अधरो के मधुर वचन,
जब खयालात में आते है!
तब थिरक-थिरक के मन मयुर,
बस तुझको आज बुलाते है!!
तुम तोड़ गए सपने सारे,
दिल के टुकडे हजार किये!
हम फिर भी मन संतोष लिये,
बस उन्हें बटोरे जाते है!!
क्यो निठुर बन गयी तुम इतना,
ये बात समझ न आती है!
है वक्त ये कैसा बदला मेरा,
अब रात डराये जाती है!!

📝कवि
राजपुत कमलेश “कमल”

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👸सुन्दर बाला👵
ऑ कोमलचित सुन्दर बाला,
तू प्रीत सुरा का है प्याला!
तेरा रुप अलौकिक खिला हुआ,
कुदरत से तुझको मिला हुआ!!
तेरे केशु है काली घटा,जैसे
अन्खियो में अदभुत प्रेम बसा!
ऑ स्वछ पूनम की चान्दनिया,
तू ही तो मेरी है दुनिया!!

📝कवि
राजपुत कमलेश ” कमल ”

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सोमवार, 28 दिसंबर 2015

मै भ्रुड

मै भ्रुड

अविरल विकल मन विश्मित भरा ,
मै भ्रुड गर्भ फान्स में पडा !
धबक धबक हीये नाद स्वयम का,
था कर्ण पट मेरे पडा !!
अविरल विकल मन विश्मित भरा ,
मै भ्रुड गर्भ फान्स में पडा !
संक्षिप्त जीवन मात्र मेरा,
नीज स्वान्स से उलझ रहा!!
नाजाने कोन सा वो पल होगा,
जब मै काल कोठ छोडुगा!!
अविरल विकल मन विश्मित भरा,
मै भ्रुड गर्भ फान्स में पडा!!

लेखक

कमलेश राजपुत “कमल “

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पूछा जो एक दिन......

पूछा जो एक दिन हमने यार से
किसी और के होने लगे हो क्या..!
मुस्कुरा कर उनसे मिला जबाब
ये बताओ पहले तुम्हारे थे क्या..!!

सुनकर जबाब उनका
बोलती हमारी बंद हो गयी
हसकर वो फिर बोल पड़े
जबाब में कोई गलती हो गयी !!

सहसा धीरे से होठ हिले
हम भी प्रत्युत्तर में बोल पड़े
हमारे होते तो ये सवाल नही होता !
गर होता सवाल भी तो जबाब ये नही होता !!

अगर तुम हमारे होते
तो जबाब कुछ इस तरह से आया होता
जब हम अपने ही नही रहे तो
तो किसी और के होने का सवाल ही नही होता !!

माना के सवाल गलत था
पर इरादो को भी तुमने गलत समझा क्या !
एक हो चुकी धड़कन कब की
फिर जिस्म अपने जुदा रहे भी तो क्या !!
!
!
!
@@@___डी. के. निवतियाँ ___@@@

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नारी कहे पुकार के

नारी कहे पुकार के
इस पुरे संसार से,

मैं तो जन-जन से जुड़ी हूँ,
तो क्यों खुद को ढूंढ रही हूँ,

अस्तित्व न होने की चुभन है,
जबकि मुमकिन ना मुझ बिन सृजन है,

खुद में बहुत सा रूप बसाया मैंने,
हर रूप में विलक्षणता दिखाया मैंने,

बाबुल के आँगन में दौड़ी,
राखी की भी बाँधी डोरी,

ब्याह के बाद मैं रीत बनी हूँ,
अपने पिया की प्रीत बनी हूँ,

ममता को मन में बसाया मैंने,
संतान रत्न भी पाया मैंने,

हर रूपों में ही किरदार निभाया,
एक नया संस्कार बनाया,

फिर क्यों खुद को ढूंढ रही हूँ,
जबकि मैं तो जन-जन से जुड़ी हूँ,

नारी कहे पुकार के
इस पुरे संसार से।

www.tishucollection.com

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🌳🌺माँ......!🌺🌳

स्वप्न : साहित्य प्रेम का बीज

कल रात,
हिंदी, अंग्रेजी, विज्ञानं मे डिक्टेशन थी आयी
जिला अल्मोड़ा मे मैंने प्रथम श्रेणी थी पायी
जगह जगह से लोग आये थे देने मुझे बधाई
प्रफुल्लित था, गौरवान्वित था, इतने मे मम्मी आयी
सोते हुए मुस्कुराते देखा वो भी फुले न समाई
सुबह स्वप्न देखा पुत्र ने , ये घडी है कुछ लाई!!
अनभिज्ञ मन मे जानने की शीघ्र जिज्ञासा आयी
नींद खुली इतने मे मेरी दुःख की बदली छाई
घडी मे देखा बजे थे ढाई
शुरू की मैंने पढाई
मेहनत गर्व से जन्मेंगे सफलता,वरना क्या कर लेंगे साँई
आऊंगा का मे प्रथम जीवन मे, मेरे संस्कारो की कमाई
सब कृपा है पाई और यही अब मेरी आशा है…!!!!
क्षमा करें मेरी पंक्तियों मे खिचड़ी भाषा है ….

my first poem when i was in class 1oth, 1999

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अतीत की झंकार

अतीत की झंकार से न डर
ये तेरा भविष्य नहीं
इससे जुड़ा है ये मगर
कोई प्रलाप-विलाप न कर
महत्वकांशा, याद रख लक्ष्य
कठिन परिश्रम की बागडोर थाम
पग पग चुनौती को आलिंगन दे
अब अधिक विचार न कर

अनुजो से सीख, प्रकृति से सीख
संजो ले मन मे निष्ठा कर्म के लिए
मस्तिस्क मे कई भूमण्डल से है
विचारो का समंदर
फिर बना उसका अस्तित्व
क्योकि ये भी है लहर डर लहर
अतीत की झंकार से न डर

उठ! जो छोड़ चला, मुख मोड़ चला
क्यों स्मरण करे उसे प्रहर दर प्रहर
कल स्वागत कर रहा है तेरा
मत ठुकरा, ये अलग ही है मंजर
जो पीड़ा का कारण बना
सोच वो सिर्फ था एक भॅवर
मुक्त कर अपने को इससे
अतीत की झंकार से न डर

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🌲 जुगनु सा चमके जाता हूँ! 🌲

🌲 जुगनु सा चमके जाता हूँ! 🌲

मावस की काली रातो में,
जुगनु सा चमके जाता हूँ!
हर अनुभव की मोती माला,
मै हाथ पिरोये जाता हूँ!!
प्रेम भरा विष का प्याला,
मै उसे घोल पी जाता हूँ!!!
मावस की काली रातो में,
मै जुगनु सा चमके जाता हूँ!
विडम्बना के अम्बर पर,
मै पन्छी बन उड जाता हूँ!!
ऑर छीन रोशनी सुरज से,
जग को प्रकाश दे जाता हूँ!!!
मावस की काली रातो में,
जुगनु सा चमके जाता हूँ!
है अन्धीयारा जो दीप तले,
मै उन्हें प्रकाशित करता हूँ!!
जो खयालात इस जहन में है,
मै शब्द उन्हें दे जाता हूँ!!!
मावास की काली रातो में,
जुगनु सा चमके जाता हूँ!
वसुधा का आन्चल थामे मै,
उपवन मान बढाता हूँ!!
खिल करके कीचड में भी,
मै कमल पुष्प कहलाता हूँ!!!
मावास की काली रातो में,
जुगनु सा चमके जाता हूँ!
📝कवि
राजपुत कमलेश ” कमल ”

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